मेरे ख़्वाब..
ख़्वाब और हक़ीक़त मेरे लिए
दोने एक से हैं
शाम के अंधेरों के साथ
जब खत्म हो जाती हैं
उम्मीदें..
तो रात सितारों की छावं
चाँद को निहारती
सो जातीं हूँ
क्योंकि ख्वाबों में भी
बहुत कुछ होता है
उम्मीदें, खुशी, और इंतज़ार
जो जाने कितनी शामों के ढल जाने तक
बरक़रार रहती है
और सपने
कभी मुरझाने नहीं देते
उम्मीदों के फूल
ख्वाबों की दुनियां को
कभी बिखरने नहीं देते
ये ख़्वाब और हक़ीक़त
की कड़ी,
कौन कहता हैं?
ख़्वाब बस ख़्वाब हैं।
हो तो ये भी सकता हैं,
की हम जागते में सो रहें हों;
और दिन के उजाले..
जो हमें;
हँसाते, रुलाते हैं,
ये हक़ीक़त ही न हो?
मुझे सब ख़्वाब लगतें हैं,
और सब हक़ीक़त..
क्योंकि शायद मेरा नज़रिया,
मेरे ख़्वाब,
आपस मे गुंथे हुए हैं।
बस मैं ही
सो रहीं हूँ, या जाग रहीं हूँ
पता नहीं?