मेरे हृदय की व्यथा ( रूहानी प्रेम)
मेरे हृदय में उठता ,
प्रेम का अथाह आवेग ।
परंतु कौन जाने और ,
कौन समझे भाव आवेग ?
यह भाव आवेग ऐसा है ,
जैसे सागर में उठती हुई लहरें ।
कभी धीमी तो कभी ,
प्रचंड और उन्मुक्त लहरें ।
ज्वार और भाटा के संकेतों में,
अपनी व्यथा ही तो कहती है लहरें ।
हर बार चांद को छूने का प्रयास
करती है यह भाव लहरें ,
नया जोश ,नई उमंग के साथ ।
और हर बार असफल होकर ,
निराशा लिए लौट आती लहरें ।
चांद को न छू पाने का दुख के साथ ।
यह असफलता अंतर्मन को
कर देता भाव विह्यल,
यह असमर्थता ,यह विवशता ,
भी कर देती है अत्यंत विकल ।
परंतु चांद के प्रति अपने प्रेम को ,
फिर भी छोड़ नहीं सकती लहरें ।
यह प्रेम ही तो इसका जीवन है ,
भला कैसे छोड़ दें यह प्रेम !
और क्यों न करें निरंतर प्रयास ,
अपने चांद को छूने का !
ना प्रेम को छोड़ सकते है ,ना प्रेमी को ,
यही है इसकी विवशता।
और इसी विवशता व् दीवानगी में ,
छुपी है मेरे ह्रदय की व्यथा ।