मेरे सपनो का विजय पर्व
“किस जीत कि हम बात करे
और कौन सा विजय मिल पाया है
ना तो बुराई मिटी है यहा अभी
और ना सच जिन्दा रह पाया है,
मासुम चेहरोे मे बसता दानव यहा
सच हो जाती दफन बुराईयो मे
दानवो से नही अब इंसान इंसान से डरता है,
जैसे इंसानियत सिमट गयी बुराईयो मे,
मनायेंग हम जरूर विजय पर्व यहा
तब ना कोई रावण होगा,और ना कोई लुटती सीता होगी,
जिन्दा रह जायेगी तो बस अमन,चैन और इंसानियत
फिर ना दरिद्ता होगी ,और ना अन्याय कही होगी”.