मेरे शिव जी (२)
एक दिवस की बात रही हैं,
सुबह सुबह मैं यात्रा पर निकली,
नंदी पर हुए सवार शिव जी की मूरत देखी,
झूम उठा मेरा तन मन ,
हो गए मुझे मेरे शिव के दर्शन ,
किन्तु उठा मन में एक ऐसा प्रश्न,
जिसने कर दिया मेरे मन को अशांत ।
जिसने यह संसार बनाया ,
जिसने तारों को चमकता,
जिसने बनाया मनुष्य महान,
फिर क्यों नहीं मिल पाया उनको सम्मान ?
एक टूटी फूटी झोपड़ी को ,
बना दिया महादेव का स्थान,
कहां गए दुनिया के इटे ?
क्या हो गए सीमेंट और बालू?
क्यों बन नहीं पाया ,
मेरे महादेव का स्थान,
क्या हो गए सब ख़ाक समान?
एक सुनसान जगह पर,
शिव की अकेली मूरत देखी,
मन ही मन यह सोची
जिसने यह संसार बनाया ,
जिसने घर घर परिवार बनाया ,
फिर क्यों मैंने उन्हें अकेला पाया ?
वह जप रहे किसी और कि माला,
मैं जप पाती उनकी माला,
उन्होंने त्यागा घर परिवार ,
मैं त्याग पाती यह संसार ।
एक छोटी कुटिया बनाकर,
बैठ जाऊं अपनी आशन लगाकर,
जपु मैं अपनी शिव कि माला,
खुल जाता मेरे मन का ताला ।
बनूं मैं अपनी शिव की गौरी,
बस यही है चाहत मेरी,
बचपन से जिसे सब कुछ माना,
लोगों ने उन्हें शिव नाम से जाना।