मेरे मन के अंधेरे कमरे में
मेरे मन के अंधेरे कमरे में
अनेक ही ख्वाब पलते हैं।
कुछ अधुरे से,
कुछ पूरे से,
इन ख्वाबों के परिंदों को
मैं उड़ाना चाहती हूँ।
जिंदगी के शहद को
मैं चखना चाहती हूँ।
वक्त की कसौटी पर
खुद को परखना चाहती हूँ।
पर मेरे सपने
और चाहत तो
वक्त के जंजीरों से
जकड़े पड़े है।
दरवाजों में भी
जंग लग गई।
और पैरों में बेड़ी है।
इतनी ताकत नहीं कि
जंजीरों को तोड़ दूँ।
पंछी पिंजरा छोड़ दूँ।
उड़ चलूँ ऊँचे गगन में,
मस्त हो के लगन में।
आँख भी धुँधली -सी है,
शब्द भी उलझे से है।
पन्ना पन्ना बिखरे से हैं।
जिंदगी उलझी -सी है।
मेरे मन के अंधेरे कमरे में
अनेक ख्वाब पलते हैं!
-लक्ष्मी सिंह