मेरे मन का कवि
मेरे मन का कवि जब होता भावुक
पड़ रहा है परिस्थितियों का चाबुक
अपने को नित प्रतिदिन मैं निखारती
हृदय भावों को कागज पर उतारती
आदिकाल से आज तक मैं जीती हूँ
नये प्रयोग कर प्रयोगवाद कहलाऊँ
बसू कबीर की साखी, सबद , रमैनी में
सूर- तुलसी की भव्य भक्ति काव्य शैली में
बिहारी की प्रेम गंगा बही है हर रग में
केशव की कठोर वाणी भी बसी अंग में
प्रगतिवाद पनपता है हर गतिविधि में
नित नव काव्य प्रयोग रचे सद्वृति में
उत्थान पतन समाया है जिस गर्त में
स्वच्छंद विचरती काव्यांगन बिन शर्त के
बिना मेरे नहीं फबे कविता कामिनी भी
मैं प्रकृति हूँ सजे मुझसे हर यामिनी भी