मेरे बाबुजी के हिस्से का खपड़ैल
मेरे बाबुजी के हिस्से का खपड़ैल.
: दिलीप कुमार पाठक
मैं हूँ सामान्य श्रेणी का पहले पायदान का एक आम भारतीय.
मेरे बाबा पाँच भाई थे. उसके बाद मेरे बाबुजी पाँच भाई. मेरे बाबा लोगों का दो अगना था. इ अगना और उ अगना. जिसमें हमलोग रहते थे वह इ अगना कहलाता था. मेरे बाबा मंझले थे. बाकि के चार बाबा उ अगना में रहते थे. इ अगना पुराना था. मिट्टी के दिवाल पर यही खपड़ा. उ अगना नया बना था, ईंट का दोतल्ला. बीच में मिट्टी का छत और ऊपर से खपड़े का छप्पर. पहले इसी तरह का मकान बनता ही था. वह बना था, संझला बाबा के सौजन्य से. क्योंकि वो फौज में थे.
बाबा का परिवार बड़ा था, अत: हमारे परबाबा लोग के निर्णय पर पुराना इ अगना में हमारे बाबा रहने लगे और बाबा के एक चचेरे भाई थे जशोदा बाबा वो.
और नया बना उ अगना में बाबा के और चारो भाई. तब इ अगना का दो भाग हो गया था.
बाबा लोगों और जशोदा बाबा के बीच फिर बँटवारे को लेकर विवाद होने लगा. जिसके कारण जशोदा बाबा यहाँ का सबकुछ बेच-बाचकर चाकन्द के पास रौना चले गये. जशोदा बाबा अपने हिस्से का घर हमारे फौजी बाबा और नन्हका बाबा के हाथों बेच पलायन कर गये. अब एक तरफ हमारे बाबा का घर बचा रहा और दूसरी तरफ जशोदा बाबा से खरीदा गया घर का खँढ़ी मेरे सँझला फौजी बाबा और नन्हका बाबा का.
सब शान्ति से रह रहे थे. फौजी बाबा रिटायर होकर घर आये, कुछ ही दिन रहे, एकदिन अचानक तबीयत बिगड़ी और असमय गोलोक वासी हो गये.
अब बच गये हमारे चार बाबा. जिनमें छोटका बाबा और नन्हका बाबा को हमलोगों का इ अगना में रहना रास नहीं आने लगा.
समझाने वाले भी, ” जरा समझs, तोहनी चार भाई जेतना जगह में रह रहल हे, ओतना में केशव जी अकेले रह रहलन हे. इ त भाई नाइन्साफी है.”
” इ बात मान रहली हे, कि उनकर परिवार ………
त एकरा मतलब का….?”
बस शुरू हुआ सकलदिपीयावँ.
केस-मुकदमा-कोर्ट हाजिरी. ठीक जशोदा बाबा के तर्ज पर. आपस के गोतिआरो खतम. न उसके यहाँ वो जा रहा है, न उसके यहाँ वो. बिआह-शादी या और कुछ में खाना-पिना एकदम बन्द.
कइएक तारीख पर उपस्थिति के बाद पंचइती बैठा उ अगना के दलान पर. पंचइती बइठा था समाधान के लिए. मेरे बड़का चाचा और बाबुजी पंचइती में हमलोग तरफ से थे औ उ अगना से छोटका और नन्हका बाबा. पंच लोग गाँव के मुखिया सरपंच और तीन लोग बाहर से आये थे. बहसा-बहसी चल रहा था. पंच सब सुन रहे थे, समझ रहे थे.
हम उस वक्त बहुत बच्चे थे. छठवीं सातवीं कक्षा में. हम थे अपने कोलसार पर बाबा और अपने दो-तीन चचेरे भाईयों के साथ. उस साल केतारी हुआ था, उसी के पेराई में. पेरने वाला कहीं कुछ गड़बड़ी न कर दे, तो एक तरह से अगोरी के लिए हममें से कोई एक का वहाँ बैठना जरूरी होता था. बाबा हम लोगों को बड़ा शान्ति से कुछ दुनियादारी समझा रहे थे.
औरत क्या होती है, पुरूष क्या होता है ? तुम लोग कहाँ से आये हो ? और ये दुनियाँ क्या है ?
बड़ा अच्छा लग रहा था, उनका सुनना उस दिन. कि अचानक चार पाँच जन आ टपके कोलसार पर और लगे तोड़फोड़ मचाने. हमारे पास बचने का कोई साधन नहीं दिख रहा था. किसी तरह हम भागे वहाँ से तो इधर एक पइन था. पइन के उस पार धनखेती था जिसमें का धान कटकर दो-तीन दिन पहले ही खलिहान गया था. वह एक राजपुत भाई गोपाल सिंह का टोपरा था. उसी टोपरे में एक तरफ नन्हका बाबा अपने लाव-लस्कर के साथ, खुद भाला लिये. दूसरी तरफ मेरे बड़े चाचा भाले के साथ और मेरे बड़े भइया लोग लाठी-गँड़ासे के साथ. नन्हका बाबा के साथ भाड़े के लोग भी थे. मगर हमलोग बस हम ही थे. पंच लोग और गाँव के लोग बस तमाशा देखने में. हम तो पइन में कूदे सो पइने में रह गये.
नन्हका बाबा का भाला छोटा पड़ गया था और मेरे बड़का चाचा का भाला नन्हका बाबा के पेट में. नन्हका बाबा गिर गये थे गोपाल सिंह के धनखेती में.
तब आनन-फानन में हम घर आये थे. घर आये तो देख रहे हैं कि बाबुजी व्याकुल हो माँ-चाची से घींचा-तीरी कर रहे हैं, फरसा लेकर बाहर जाने को.
बड़का चाचा घर पहुँचकर बड़े गर्व से सीना फुलाकर कह रहे हैं, ” जे इलाज चचा के लिखल हल, उ हो गेलक. अब उ शान्त रहतन. बड़ी…….”
और कुआँ पर भाला धोने लगे थे.
……………… तो इस तरह की कहानी है मेरे बाबा के इस सिनेमाहॉल की. यह पीछे वाला मकान मेरे छोटे चाचा जी की है जो गाँव में ही सरकारी शिक्षक थे. वो अब जहानाबाद में अपने रिटायरमेंट के पैसा से घर बनाकर रहने लगे हैं.
मेरे बाबुजी के हिस्से का बस यही खपड़ैल है. इस मकान का पाँच हिस्सा लगा था, मेरे बाबुजी और चाचा लोगों के बीच, लॉटरी सिस्टम से. जिसमें आगे का हिस्सा मेरे बाबुजी को मिला था. यह वही खपड़ैल है. इतना में छोटे चाचा जी का वह पीछे का बिना पीलर का तीन तल्ला दिख रहा है. बाकी तीन चाचा लोगों का तीन-तल्ले के पीछे है. ढहने-ढूहने की स्थिति में.