” मेरे बचपन का एक राज़ “
मेरा बचपन शैतानी और समझदारी दोनों से भरा था
शतप्रतिशत एकदम तपे सोने जैसा एकदम खरा था ,
शैतानियाँ निराली थीं रोज़ नित नयी शैतानी की सवारी थी
अम्माँ की मार से बचने में पलंग के नीचे की दुनियाँ हमारी थी ,
मेरी समझदारी देख अम्माँ निश्चिंत हो जाती थीं
बड़ी बहन और छोटे भाई को संभालने में खो जाती थी ,
छोटी सी मैं अम्माँ के भार को समझने लगी थी
तभी से अपना सारा काम खुद करने लगी थी ,
स्कूल से आकर अम्माँ का पल्लू पकड़ रसोई में ही खड़ी रहती थी
अम्माँ की पाकशाला चुपचाप पल्लू के रास्ते हाथों में उतर जाती थी ,
अम्माँ का आटे से खिलौने गढ़ना न जाने मैने कब सीखा
कला के क्षेत्र में जब मैने क़दम रखा ये हुनर मुझे तब दिखा ,
अम्माँ अपने पास शब्दों के अपार भंडार रखती थीं
कम पढ़ी लिखी मेरी अम्माँ वाक़ई ग़ज़ब का लिखती थीं ,
हर एक हुनर मेरी अम्माँ का मुझे विरासत में मिला
बस उनके जैसा ना दिख पाने का आजतक है गिला ,
अम्माँ की साड़ियों की कमाल की थी पसंद
वैसी ही साड़ियाँ मेरी भी अलमारियों में हैं बंद ,
अम्माँ का मिज़ाज अम्माँ की ठसक अम्माँ का रूआब
वैसा ही मिज़ाज – ठसक – रूआब का मेरा भी है ख़्वाब ,
मैं क्या – क्या गिनाऊँ क्या – क्या सुनाऊँ
अपनी सबसे बड़ी शैतानी कैसे मैं छिपाऊँ ?
बचपन का वो राज़ बड़ी मुश्किल से सीने में दबाती हूँ
अपनी वो बड़ी शैतानी आज आप सबको मैं बताती हूँ ,
अम्माँ से छुप कर मैं पैसों को ज़मीन मे दबा आती थी
पेड़ निकलने के इंतज़ार में बार बार वहाँ झाँक आती थी ,
पूरी कोशिश रहती थी मेरी अपनी अम्माँ को कैसे ख़ुश कर दूँ
मुआँ पेड़ उगे तो हिला कर उससे अम्माँ की झोली भर दूँ ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 03/05/2020 )