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28 May 2022 · 3 min read

मेरे पापा

लिखना चाह रहा मैं पिता पर कविता, पर लिख नहीं पा रहा हूँ |
क्या – क्या लिखूँ पापा पर मैं, ये समझ नहीं पा रहा हूँ |
फिर भी पापा का कुछ अंश मैं यहाँ पर दर्शा रहा हूँ |
क्यूँकि पापा के बारे में सबकुछ बता नहीं पा रहा हूँ |
शब्द नहीं हैं उतने जिससे, पापा को पूरा बता पाऊँ |
पर चाहता हूँ इक दिन, पापा को पूरा गाऊँ |
पापा पर जितना लिखा है मैंने, अभी उतना गा रहा हूँ |
पर वचन देता हूँ कि बहुत जल्द, पापा पर पूरा कविता लेकर आ रहा हूँ ||

मैं पापा की छाया में रहता हूँ, पापा को पेड़ समझता हूँ |
पेड़ों की तरह उनसे भी, जीवनोपयोगी चीजें पाता हूँ |
जिस तरह पेड़ निःस्वार्थ भाव से हमको, भोजन – ऑक्सीजन देता है |
और बहुत कुछ यानि अपना सर्वस्व हमें, निःस्वार्थ भाव से देता है |
इसी तरह पापा भी मेरे, हमको सबकुछ देते हैं |
हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं, चाहे खुद भूखे सो जाते हैं |
पेड़ की तरह पापा भी, ऊपर से कठोर होते हैं |
पर हम जब पास नहीं होते हैं तो, वे दोनों रोते हैं |
पेड़ में जो गुण हैं, वे सारे गुण हैं पापा में |
पर सच बताऊँ तो बस, इतने ही गुण नहीं हैं पापा में ||

मैं नदी से पानी पाता हूँ, पापा से जीवन पाता हूँ |
पापा को नदी समझता हूँ, मैं पापा को नदी समझता हूँ |
नदी हमेशा बहती रहती, हमको पानी देने को |
थक के भी विश्राम न करती, हमको जीवित रखने को |
इसी तरह पापा भी हरदम, काम ही करते रहते हैं |
हमारी उपयोगिता पूरी करने को, हमको सारी खुशियाँ देने को |
नदी भी पानी के बदले कुछ, चाह नहीं रखती हमसे |
पापा भी करते हैं हमारे लिए, सारे काम निःस्वार्थ भाव से |
पापा और नदी में जब कभी तुलना करता हूँ, दोनों में समानता ही पाता हूँ |
इसीलिए तो पापा को नदी समझता हूँ, मैं पापा को नदी समझता हूँ ||

जब कभी हम पे मुसीबत आती है, तो पापा बन के पर्वत आते हैं |
खुद झेलते हमारी सारी मुसीबत, और हमको वे बचाते हैं |
गलती चाहे हमारी ही क्यों ना हो पर, हमारे लिए वो सबसे भिड़ जाते हैं |
भले ही बाद में हमें डाँटते हों, पर उस समय हमें बचाते हैं |
आँधी – आतप – बरसा – पानी, कुछ भी हो पर्वत रहते खड़े |
पापा भी तो इन परिस्थितियों में भी, हमारे लिए सारे काम कर रहे |
पापा और पर्वत में मैं कोई ना अंतर पाता हूँ |
पापा को पर्वत कहता हूँ मैं, पापा को पर्वत कहता हूँ ||

अग्नि सा गर्म वो दिखते हैं पर, जल सा शीतल होते हैं |
सबसे ऊपर होते हों पर, हमसे नीतल हो जाते हैं |
होते हैं धरती की तरह करूण, शीतल होते जैसे वरूण |
होते कठोर पर्वत की तरह, पर होते दिलेर प्रेयषी की तरह |
सूर्य दुनिया को प्रकाशित करता है , पापा हमें प्रकाशित करते हैं |
चंद्रमा रात के तम को भगाता है, पापा जीवन के तम को भगाते हैं |
सागर की तरह खुद को फैलाकर, करते हमारी रक्षा हैं |
सच कहूँ तो पापा मेरे, पूरी तरह प्रकृति के जैसा हैं ||
सच कहूँ तो पापा मेरे पूरी तरह प्रकृति के जैसा हैं ||
लेखक : यशवर्धन राज (बालेन्दु मिश्रा)
छात्र : हिन्दी प्रतिष्ठा, स्नातक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
निवास : पंचोभ, दरभंगा, बिहार
मो॰ नं॰ : 8789425526

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