मेरे परीकल्पनाओं की परिणाम हो तुम
मेरे परीकल्पनाओं की परिणाम हो तुम
एक तस्वीर रोज बनती और बिगड़ती है।
उन लहजों में ही ढूंढ लेते है खुद को हम
चंद अल्फाजों में वो चित्र भी बन जाते है।
है इंतजार हर पल उस सुनहरी वक्त का
जब हम लफ्जो की समंदर में खो जाते है।
गुफ्तगू ही रहे दरमियान कयामत तलक
ना रूबरू हो पाए ना रूबरू की चाहत है।
उस रब से ना तेरा कोई होड़ है शायद मगर
ये इबादतगाह भी बिना लफ्जो के बेजार है।
तू सुकून है तू करार है तड़पती वक्त का मेरा
तेरी नाराजगी या बेगानापन जैसे अभिशाप है।
वक्त से वक्त के लिए भी कुछ वक्त ले लीजिए
बैठे है अरसे से ये इंतजार भी खत्म होने को है।
मेरे परीकल्पनाओं की परिणाम हो तुम
एक तस्वीर रोज बनती और बिगड़ती है।