*मेरे दोनों पुत्रों के विवाह में रामपुर में कोई बड़ा आयोजन नहीं हुआ : कुछ लोगों न
मेरे दोनों पुत्रों के विवाह में रामपुर में कोई बड़ा आयोजन नहीं हुआ : कुछ लोगों ने सराहा ,किंतु कहा कि यह व्यवहारिक नहीं है
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सादगी से विवाह का विचार सैद्धांतिक तौर पर तो मैं 1983 से अभिव्यक्त करता रहा हूँ। 1983 में मेरी पहली कहानी “किंतु किस कीमत पर” प्रकाशित हुई ,जिसमें मैंने सादगीपूर्ण विवाह के पक्ष में एक लंबे-चौड़े घटनाक्रम को लिखकर प्रस्तुत किया था।
सिद्धांत अपनी जगह होते हैं लेकिन उन्हें व्यवहार में लाने में जहाँ एक ओर दोहरे मापदंड आड़े आ जाते हैं ,वहीं कुछ व्यवहारिक कठिनाइयाँ भी आती हैं । सौभाग्य से जब मेरे दोनों पुत्रों का विवाह हुआ ,तब मैं इन दोनों ही प्रकार की बाधाओं से ऊपर उठकर अपनी आस्था को काफी हद तक अमल में लाने में सफल हो सका। दोनों विवाह इतनी सादगी बल्कि कहना चाहिए कि सब प्रकार के तामझाम से रहित हुए कि रामपुर में किसी को यह पता भी नहीं चल पाया कि मेरे दोनों पुत्रों का विवाह हो गया है ।
हमने रामपुर में कोई भी बड़ा कार्यक्रम नहीं रखा था । बड़ा क्या ! कहना चाहिए कि छोटा कार्यक्रम भी नहीं रखा था । दोनों विवाह केवल घर-परिवार के गिने-चुने लोगों के मध्य कन्या-पक्ष के शहर में संपन्न हुए । बड़े पुत्र का विवाह लखनऊ से हुआ। छोटे पुत्र का विवाह बरेली से हुआ। रामपुर में हमने कोई आयोजन नहीं किया था ।
न तो उस समय कोरोना चल रहा था और न ही इस दृष्टि से सरकार के कोई निर्देश थे कि हम विवाह में मेहमानों की संख्या सीमित रखें । हम चाहते , तो बड़ा आयोजन कर सकते थे। धन की समस्या भी कोई खास नहीं थी । लेकिन जो धनराशि हम वैवाहिक आयोजन पर खर्च करते, उसके स्थान पर उस धन को हमने अन्य जरूरी कार्यों में खर्च करना उचित समझा। इन सब में सैद्धांतिक विचारधारा का आग्रह तो प्रबल था ही ,साथ ही सफलता इसलिए भी मिल पाई क्योंकि मेरी पत्नी का बहुत सकारात्मक विचार मेरे ही समान इन सब विषयों पर था । बल्कि मैं तो कहूँगा कि वह मुझसे भी दो कदम आगे रहीं और उन्होंने अत्यंत सादगी का पक्ष लेते हुए सब प्रकार से न केवल धन की फिजूलखर्ची को रोका बल्कि रामपुर में कोई भी कार्यक्रम न हो , इस पर जोर दिया । दरअसल मुश्किल यह थी कि अगर कार्यक्रम होता तो फिर वह बढ़ता चला जाता । उसमें विविधता आती तथा अतिथियों की संख्या भी बहुत ज्यादा होती जाती । रामपुर में एक बार हम कोई कार्यक्रम का विचार करें तो यह सब स्वाभाविक था।
समाज में केवल कुछ ही लोगों ने इस पर अपनी खुशी जाहिर की । आपत्ति भी इक्का-दुक्का किसी व्यक्ति ने ही की ।अन्यथा यह एक प्रकार से बिना टिप्पणी के घटनाक्रम सामने से गुजर गया। कुछ व्यक्तियों ने मुझे इस बात के लिए बधाई तो दी कि मैंने विवाह में सादगी को अपनाते हुए धन की फिजूलखर्ची नहीं की लेकिन उन्होंने अपनी यह परेशानी भी बताई कि “रवि भाई ! अब मेरे पुत्र का भी विवाह होना है लेकिन मैं तुम्हारी तरह इस रास्ते को नहीं अपना सकता, क्योंकि मेरे घर में इस प्रकार की राय नहीं बन पाएगी ।”
यह मजबूरी मैं समझ रहा हूँ। अनेक लोग यह कहते हैं कि विवाह में फिजूलखर्ची बंद हो ,पैसे का दुरुपयोग समाप्त हो तथा आजकल जो विवाह समारोह अपने रुतबे, शान-शौकत और सामाजिक प्रतिष्ठा के द्योतक बनने लगे हैं तथा एक प्रकार की जो दिखावे की होड़़ समाज में चल पड़ी है, उसका सिलसिला बंद होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर यह व्याधि हमें कई प्रकार के अन्य रोगों से भी ग्रस्त कर लेगी।
दहेज की प्रथा केवल वैवाहिक समारोहों को सादगी के साथ संपन्न करने से नहीं रुक पाएगी ,यह बात तो अपनी जगह सही है । लेकिन उस पर काफी हद तक रोक अवश्य लग जाएगी । जो खर्चा मजबूरी में जरूरी जान पड़ता है और जिसको खर्च करने के लिए लड़की वाले और लड़के वाले दोनों ही प्रायः विवश होते हैं तथा जिसके लिए उन्हें अपने जीवन के अनेक वर्षों का परिश्रम से संचित किया हुआ धन खर्च करना पड़ जाता है ,उससे बचा जा सकेगा। फिजूलखर्ची के कारण ही अनेक लोगों को न केवल अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करके बैंक बैलेंस शून्य कर देना पड़ता है बल्कि बहुत बार कर्ज लेने तक की नौबत आती है तथा विवाह के बाद उस कर्ज को किस्तों के रूप में अनेक वर्षों तक चुकाते रहना पड़ता है।
कितना अच्छा होगा कि सब लोग यह विचार बना लें कि हम एक पैसा भी कर्ज लेकर विवाह नहीं करेंगे। जितनी हमारी हैसियत होगी हम उतना ही खर्च करेंगे और अपने घर-परिवार के शिक्षा , स्वास्थ्य तथा घरेलू सुदृढ़ता की दृष्टि से अपने कमाए हुए धन को व्यय करेंगे न कि व्यर्थ के दिखावे और झूठी शान में अपने पैसे को बर्बाद करके रख देंगे।
मेरे बड़े लड़के एम.बी.बी.एस, एम.एस, एम.सीएच. हैं तथा छोटे पुत्र बी.डी.एस ,एम.डी.एस हैं। यह शिक्षा ही उनके लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक बनेगी ,न कि विवाह समारोह की एक दिन की झूठी वाहवाही से कुछ मिल पाता ।
दुर्भाग्य से आजकल सस्ती शादियाँ करने वाले लोगों को समाज में हीन भावना से देखा जाता है जबकि महँगी शादियाँ करने वाले लोगों को समाज में आदर के साथ देखने की प्रथा है । इस चक्कर में लोग अपनी हैसियत से लगभग चार गुना खर्च विवाह समारोहों में करते हैं अर्थात किसी को एक लाख रुपए खर्च करने चाहिए तो वह चार लाख रुपए खर्च करता है तथा अगर उसे चार लाख रुपए का बजट लेकर चलना चाहिए था तो वह सोलह लाख रुपए फूँक देता है। इस कारण कर्जदार बन जाता है तथा आर्थिक दृष्टि से उसकी कमर टूट जाती है । यह सारा व्यय एक दिन की फुलझड़ी की तरह अपनी चमक बिखेर कर नष्ट हो जाता है । हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि ,मंत्री सांसद ,विधायक तथा बड़े-बड़े राजनेता इस दिशा में कम खर्च के साथ विवाह का आदर्श उपस्थित करेंगे तो कोई बड़ा परिवर्तन आ पाएगा । मध्यमवर्ग को एक कहने के लिए सहारा मिल जाएगा कि देखो हमारे समाज के बड़े-बड़े लोगों ने भी इसी प्रकार से सादगी से विवाह किया है। जब हमारे एम.एल.ए और एम.पी. सस्ते में विवाह कर सकते हैं तो हमें भी करने में कोई आपत्ति नहीं होगी।
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*लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा* रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451