मेरे चिराग की धुंधली सी रौशनी क्यूं है
शऊरो फिक्र मे आख़िर ये बेबसी क्यूं है
उठो चिराग़ जलाओ ये तीरगी क्यूं है
तुला है सारा ज़माना सितम ज़रीफी पे
मगर हमारे लबों पर ये खामुशी क्यूं है
कहीं तो मै भी नहीं तेरे नेक बन्दों में
मेरे नसीब मे आख़िर ये मुफ़लिसी क्यूं है
कोई कमी तो नही मेरी परवरिश मे कहीं
मेरे चिराग़ की धुधली सी रौशनी क्यूं है
पहुच गया तो नही मै क़रीब मंज़िल के
मेरे ख़िलाफ ये साज़िश रची गयी क्यूं है
जब एक खून हमारी रगो में है आज़म
हमारे बीच ये नफ़रत ये दुश्मनी क्यूं है