मेरे गांव में
मिटती जा रही मिट्टी की सोंधी खुशबू,
अब मेरे गांव में भी पक्के मकान बनने लगें।
बर्तन भी कोई बड़े घरानों से मांगता नहीं,
अब मेरे गांव में भंडारे भी कम होने लगें।
सांझ सबेरे कोई चबूतरों में बैठता नहीं,
अब मेरे गांव में लोग मिलने से कतराने लगें।
तीज त्यौहारों में घर-घर पकवान बंटते नहीं,
अब मेरे गांव में रिश्तों में स्वाद कम करने लगें।
बड़े बुजुर्ग तज़ुर्बे ज़िन्दगी के बतलाते नहीं,
अब मेरे गांव में बच्चे सयानों को कम समझनें लगें।
मेरा गांव भी सबकुछ शहरों सा होने लगा,
अब मेरे गांव में गांव जैसी रीति-रिवाजें कम होने लगें।
शिव प्रताप लोधी