मेरे खेतो के मखमली चादर
देख दृश्य को विभोर हो रहा हूँ
मन चंचल का तन जाग उठा है
देखो ये केसी घटा बसन्त की छा रही है
मेरे खेते में मखमली चादर ओढ़े बैठी है
देखो माँ! हवाओं का केसा रुख बदल रहा है
चारो ओर मृदंग सा लग रहा है
कोमल लताएं झूम रही है पुष्प नृत्य कर रहे
भँवरे संग मधुरता के गीत गा रहे है
माटी महक सा रही है
अम्बर की घटा छा रही है
छण भर भी प्रतीक्षा नही होता अब में भी इनका हिस्सा बन जाऊं
नाच न जानू फिर भी नाचूँ गा न सकूँ फिर भी गाऊ
पल भर की देरी अब में स्वीकार न करूं
हरे जो बाली संग पीले सरसों के फूल
तितिलियो का आगमन बसन्त की बहार
देख दृश्य को मन में ख्याल आता
क्यों न इनपे अपना जीवन समेट कर सिख लूँ।………