मेरे ईश
मेरे ईश!
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मुझ भक्तन को प्रभु,तेरी शरण में
आना है।
मीरा सा प्रेम कर,जोगन बन जाना है।।
मुझको तुम्हारा प्यार मिले,जो सबको
मिला है।
तुम्हारी भक्ति में डूबी, मुझे खेवनहार
मिला है।।
तुम तो सबके हो दाता, फिर ये भेद भाव कैसा?
हे मेरे नाथ! तुम ही बताओ, क्यों होता ऐसा?
यह मानुष का छल,अब सह न सकूंगी।
ऐसा वीभत्स रूप देख, इसमें रह न सकूंगी।।
धरा में हर मानुष एक सा, कोई भेद नहीं है।
मंदिर में हर मानुष अर्चन करे,
कोई जाति नहीं है।।
तेरा दर सबके लिए,हर-पल खुला रहता है।
हृदय में हो प्रेम भाव,ईश उस मन में बसा होता है।।
हर डाल में,पात में,कण-कण में प्रभु का डेरा।
हर-पल होता है धरा पर, प्रभु का फेरा!!
सुषमा सिंह*उर्मि,,