मेरे अल्फ़ाज़
गिनता रहा मैं पत्ते बरगद के पेड़ के ।
कुछ शाख़ पे हरे से कुछ जमीं ढ़ेर के ।
टूटकर बिखरते ही रहे शाख़ से यूँ पत्ते ,
जिस तरह बिखरे अल्फ़ाज़ मेरे शेर के
…..विवेक दुबे”निश्चल”@…
गिनता रहा मैं पत्ते बरगद के पेड़ के ।
कुछ शाख़ पे हरे से कुछ जमीं ढ़ेर के ।
टूटकर बिखरते ही रहे शाख़ से यूँ पत्ते ,
जिस तरह बिखरे अल्फ़ाज़ मेरे शेर के
…..विवेक दुबे”निश्चल”@…