मेरे अल्फाज.
ये शहरों में पसरे हुये गुमनाम सन्नाटे
और लोगों की बढ़ती हुई ये बेचैनियां
बिल्कुल साफ इशारा कर रही हैं
भूलकर के इसां ने अपनी सब “हदों” को
तमाशा सा वना दिया था कुदरत का
पर वो अपना अब तमाशा कर रही है
कोख में ही मौत और ये कत्लेआम
वेगुनाहों की दर्द भरी दु:खों की चीखें
कुदरत को गुलाम बनाने की नापाक करतूतें
आशियां ढूढ़ने तुम चांद मंगल पर चले थे
भूलकर अपनी हदें वना दी सरहदें जमीं पे
वो आजादी का सही मतलब समझा रही है
इस आग में जलोगे तो जलोगे ही तुम
तपकर सोना बनने की ख्वाहिश छोड़ दो
निगाहें अपनी सीधी कर दी हैं कुदरत ने
उसके कहर से वाकिफ नहीं हो “सागर”
वो चाहें तो सासें लेना तक हराम कर दे
वो तुम्हारे ही किये का आईना दिखा रही है
चमन में बारूद भी तुम्हारी ही देन है
अब आग लगी तो क्या अनोखी बात है
चमन से अमन को जुदा कर खुश तो हो
मेरे शहर के अजीजों संभल जाओ जरा
हकीकत से मुंह मोड़ते क्यों हो साहब
भयंकर तवाही द्वार पे नजर आ रही है
मंजर वो होगा जो तुम देख भी न पाओगे
तरसोगे पर अपनो से तक न मिल पाओगे
बागढोर सभ्यता की आपके हाथों में है
कुछ वक्त दिया है संभलने का खुदा ने
फिक्र अपनो कि करो और संभल जाओ
वर्ना वो मौत की ‘शहजादी’ आ रही है
वेखॉफ शायर :-
✍ राहुल कुमार सागर✍
“बदायूंनी”