मेरे अनुभव
नदी के उफ़ानों पर,
हमनें
तैरना सीखा है।
झूठ की बुनियाद पर,
सच को
मरते देखा है।
हँसते हुए आइने पर,
खुद को
रोते देखा है।
खुद की बरबादी पर,
खुद को
संभलते देखा है।
बन्धनों की बंदिशों को
तोड़कर,
लोगों को बदनाम होते देखा है।
© दीपक बहुगुणा
02.06.2021