मेरे अंतर्मन का मौसम …
अंदर का मौसम है बड़ा ही विकट ,
आशा -निराशा के धुप- छाव का
खेल चलता रहता है इसके भीतर ।
और कभी कु शंकायों का गहरा
जाता है संकट ।
उम्मीद की धुप निकलती है कभी कभी ,
मगर कितने समय के लिए ?
खुशियों की चांदनी रात मिलती है कभी
कभी बस कुछ पल के लिए ।
खुल के बिखर ही नहीं पाते कभी ,
हास्य -मुस्कान के मोती ।
और सब पर ग्रहण सा लग जाता है।
चांद के दर्शन भी नही कर पाती ।
उफ़ ! यह रोज़ की नयी नई उलझने,
ओलों की तरह क्षणभंगुर मेरे सपनो,
क्या होगा? कैसे होगा ?और कब होगा ?
जैसे प्रश्नों के भंवर में दिमाग सदैव फंसा रहेगा।
जिसमें चमकती ख्यालों की बिजलियाँ ,
जो ऐसा कम्पन पैदा करती है ।
मगर मेरे भीतर चाहे कुछ भी घट,
रहा हो इससे लोगों की कोई रुचि नहीं लगती है।
जिस तरह ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारने से,
नदी में तरंगे पैदा होती है।
मेरी भावनायों के सरोवर में भी लोग द्वारा
फेंके जाने वाले उपेक्षा व् अलोचनायों के
पत्थरों से, हलचल होती है।
ऐसा समुद्री तूफान उठ खड़ा होता है की
की कुछ मत पूछो !
फिर ऊँची -ऊँची उठने लगती हैं बेसब्री और असंतुष्टि की लहरें।
जिन्हें खामोश करना बड़ा कठिन हो जाता है।
कुछ न पूछो !
कुछ भी स्थिर नहीं रह पाता फिर,
सारी सृष्टि डावांडोल हो जाती है ।,
जैसे प्रलय का आगमन होने वाला हो .
मेरे अंदर का मौसम की भी यही स्थिति होती है ।
की अब बहुत कुछ घटित होने वाला है .
प्यासी रही जो ता -उम्र आत्मा ,
उसे पीने को समुन्द्र मिलने वाला है।
सारी कायनात अब उसमें समाने वाली है।
अपने अहंकार में खोयी यह दुनिया,
एक गहरी खाई में गिरने वाली है।
तभी नज़र आएगा कुदरत का कानून ,
जब करवटें लेगा मेरे भीतर का मौसम।
वोह घड़ी अतिशीघ्र आने ही वाली है ।