चुनिंदा बाल कहानियाँ (पुस्तक, बाल कहानी संग्रह)
चुनिंदा बाल कहानियाँ
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आज का श्रवण कुमार
रामपुर में रतन अपनी दादी के साथ रहता था। पाँच बरस पहले जब वह सिर्फ सात साल का था, तभी उसके मम्मी-पापा की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी। दादी माँ ही अब उसके लिए सब कुछ थी।
दादी माँ दूसरों के घर झाडू-पोंछा कर, उनके कपड़े सिलकर घर चला रही थीं। वह रजत को खूब पढ़ा-लिखाकर एक बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं।
रजत अब सातवीं कक्षा में आ गया था। वह खूब मेहनत करता था। हर कक्षा में प्रथम आने के साथ-साथ वह स्कूल में आयोजित खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेता और ईनाम भी पाता।
इस बार वार्षिकोत्सव की तैयारी बड़े जोरों से चल रही थी। अंतिम दिन पुरस्कार वितरण के लिए राज्यपाल महोदय आने वाले थे। उनके सामने ’श्रवण कुमार की भक्ति’ नामक एकांकी का मंचन करना था। इसमें श्रवण कुमार की भूमिका रजत को करनी थी। इसकी अच्छी और पूरी तैयारी हो गई थी। कई बार रिहर्सल भी करवाया गया ताकि कोई कमी न रह जाए।
वार्षिकोत्सव वाले दिन रजत जब सोकर उठा तो देखा कि दादी माँ ठंड से ठिठुर रही हैं और साथ ही साथ कुछ बड़बड़ा रही हैं।
रजत दादी माँ की स्थिति देखकर डर गया। उसे कुछ नहीं सूझ रहा था। वह करे तो आखिर क्या करे ? एक तरफ दादी थीं तो दूसरी तरफ स्कूल का वार्षिकोत्सव…।
उसे क्या करना है, इसका निर्णय लेने में उसे देर नहीं लगा। एक कागज पर प्रधान पाठक महोदय के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखकर अपने मित्र महेश के हाथों उसे भिजवा कर पड़ोसियों की मदद से अपनी दादी माँ को अस्पताल ले गया।
रजत को न देखकर प्रधान पाठक महोदय परेशान थे। उन्होंने एक विद्यार्थी को उसके घर भी बुलाने के लिए भेजा। तभी महेश ने आकर उन्हें रजत का वह पत्र थमा दिया। उन्हें सारी बात समझते देर नहीं लगी।
उन्होंने मंच पर आकर कहा- “मंच पर उपस्थित परम आदरणीय मुख्य अतिथि जी, गणमान्य नागरिकों और मेरे प्यारे बच्चों, बड़े खेदपूर्वक मुझे कहना पड़ रहा है कि हमारे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आज हम ‘श्रवण कुमार की भक्ति’ नामक एकांकी आपके समक्ष प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं और मुझे यह बताते हुए अपार खुशी भी हो रही है कि इस एकांकी में श्रवण कुमार की भूमिका अदा करने वाला विद्यार्थी रजत कुमार आज वास्तविक जीवन में श्रवण कुमार की भूमिका निभा रहा है।…”
सारी स्थिति जानने के बाद कई गणमान्य नागरिक रजत की आर्थिक सहायता के लिए आगे आए। राज्यपाल महोदय ने भी उसको प्रतिमाह दो सौ रूपए छात्रवृत्ति के रूप में देने की घोषणा की।
इस प्रकार रजत की आर्थिक समस्या दूर हो गई। कुछ ही दिनों में दादी माँ स्वस्थ हो गईं।
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जिद
विनोद के पापाजी अंततः राजदूत मोटर साइकिल खरीद ही ली। उन्हें ड्यूटी से काफी दूर तक जाना जो पड़ता है। उस पर से जंगल का उबड़-खाबड़ रास्ता। गाड़ी घर में आई तो सभी खुश थे। विनोद की मम्मी ने आरती उतारी। पापाजी ने भी पूजा की और पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँटी। शाम को सभी घूमने भी गए।
पढ़ाई और खेलकूद दोनों में तेज विनोद आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। अपने माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण वह कुछ जिद्दी भी हो गया था। एक दिन स्कूल से लौटते ही उसने पापाजी से गाड़ी चलाने की बात कही।
उसके पापा ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा कि- ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो बेटे। गाड़ी नहीं चला पाओगे।’’
पर विनोद भी कहाँ मानने वाला था। बोला- ‘‘पापाजी स्कूटी तो मैं आसानी से चला लेता हूँ, फिर मोटर साइकिल क्यों नहीं चला सकता ?’’
बेटा स्कूटी और राजदूत में बहुत फर्क है। अभी तुम पढ़ो। इससे आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा और अपने काम में लग गए, पर विनोद का पढ़ने में कहाँ मन लगता। उस पर तो राजदूत मोटर साइकिल चलाने की धुन सवार थी। वह मौके की तलाश में था कि कब मम्मी-पापा बाहर जाएँ और वह मोटर साइकिल चलाए।
आखिर उसे मौका मिल ही गया। उसके मम्मी-पापा पड़ोस में ही एक पार्टी में गए हुए थे। गाड़ी आंगन के एक कोने में खड़ी थी। विनोद के लिए यह अच्छा मौका था। आठ-दस किक लगाने से वह गाड़ी स्टार्ट करना सीख गया। किसी तरह धक्का देकर उसने गाड़ी बाहर निकाली, गाड़ी स्टार्ट की और उस पर सवार हो गया। वह बहुत खुश था।
गाड़ी सड़क पर धड-धड़ाती हुई चली जा रही थी। विनोद के मुँह से फिल्मी गीत के बोल फूट पड़े ‘‘जिंदगी, एक सफर है सुहाना…’’
सामने एक बस को आते देखकर वह काँप उठा। हड़बड़ाहट में उसका संतुलन बिगड़ा और वह गिर पड़ा। बस के ड्राइवर ने विनोद को गिरते हुए देख लिया था। उसने बस खड़ी की। विनोद मोटर साइकिल के नीचे दबा था और निकलने की थोड़ी-सी कोशिश के बाद बेहोश हो गया था। उसे कई जगह चोटें आई थीं। विनोद को उसी बस से अस्पताल पहुँचाया गया। अस्पताल में बेहोशी की हालत में वह बड़बड़ाता- ‘‘पापाजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपका कहा नहीं माना।’’
होश में आने के बाद वह बहुत डरा हुआ था। वह सोच रहा था कि मम्मी-पापा बहुत नाराज होंगे, परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मम्मी-पापा उसके होश में आने का इंतजार कर रहे थे। पापाजी को देखते ही विनोद बोला- ‘‘पापाजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपका कहा नहीं माना।’’
मम्मी ने उसे सीने से लगा लिया- ‘‘बेटा अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो हम किसके सहारे जीते।’’
विनोद सोच रहा था कि यदि वह पापाजी का कहा मान लेता तो यह सब नहीं होता। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। उसने निश्चय किया कि अब वह अपने मम्मी-पापा की हर बात मानेगा।
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भुलक्कड़ मामा
हर बार की तरह इस बार भी अमर अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ होली का त्यौहार मनाने अपने गाँव राजपुर पहुँचा। उसे गाँव की होली बहुत अच्छी लगती थी।
अमर के पिताजी शहर में नौकरी करते थे, इसलिए वे लोग शहर में रहते थे, पर लगभग सभी तीज-त्यौहार वे अपने गाँव में आकर मनाते थे। यहाँ अमर के दादा-दादी, चाचा-चाची तथा उनके बच्चे रहते थे। त्यौहार पर सभी से आपस में मिलजुल कर अच्छा लगता था।
इस बार राजपुर पहुँचने पर अमर को अपने घर में एक नया आदमी दिखाई दिया। पूछने पर दादा जी ने बताया कि यह उनका नया नौकर है, जो दिन में खेतों में काम करता है और रात को घर की चौकीदारी करता है। इस दुनिया में उसका कोई नहीं है। धीरे-धीरे अमर भी उसे हिलमिल गया। वह बहुत ही अच्छा आदमी था। हमेशा हँसी-मजाक करते रहता था। मशीन की तरह हर काम पलक झपकते ही कर लेता था। सभी बच्चे उसे भोला मामा कहते थे। उसमें बुराई थी तो सिर्फ एक बात की, वह एक नम्बर भुलक्कड़ था।
बात होली के एक दिन पहले की है। अगले दिन होलिका दहन था। होलिका को खूब बड़ा करने के लिए कुछ शरारती लड़के गाँव के लोगों की लकड़ी के तख्ते, चारपाई और यहाँ तक कि खाली पड़ी छोटी-छोटी झोपड़ियों की छत को उठा कर ले जाते और होलिका में डाल देते थे।
इन लड़कों के डर से गाँव के लोग रातभर जाग कर सामानों की देखभाल करते। घर से कोई सामान न ले जाए, इसलिए रात को भोला मामा लाठी लेकर घर के सामने टहलने लगे। अमर ने भी भोला मामा के साथ रातभर जागने का निश्चय किया। माँ-पिता जी और दादा-दादी ने बहुत मना किया, पर वह कहाँ मानने वाला था। आखिर उसे भोला मामा के साथ रात भर पहरे पर बैठने की इजाजत मिल गई। अब वे आँगन में बैठकर पहरा देने लगे। पता नहीं क्यों आज वे बहुत हँस रहे थे। एक-दूसरे को चुटकुले सुनाते और हँसते। बीच-बीच में भोला मामा कहते- ‘‘चलो अब सोते हैं।‘‘
“अमर याद दिलाता कि आज रात भर जागना है.” तो मामाजी झेंप जाते। बोलते- ‘‘अरे, मैं तो भूल ही गया था।’’
बाहर खूब हो-हल्ला मचा हुआ था। कोई तेज आवाज लगाता “पकड़ो-पकड़ो, ओ लकड़ी लेकर भागा,” तो कहीं से आवाज आती- “पहचान लिए हैं बच्चू, सुबह बताएँगे तुम्हें।”
रात लगभग दो बजे का समय रहा होगा। अमर लघुशंका के लिए बाहर निकला तब भोला मामा ऊँघ रहे थे। अंधेरा होने से अमर वहाँ रखे टिन के घड़े से टकरा गया।मामा जी एकदम से चौंक पड़े। उन्हें लगा कोई उनके यहाँ लकडी़ लेने घुस आया है। वे डंडा लेकर दौड़े, पर एकदम से रूक गए। उनका दिमाग तेजी से काम करने लगा। उन्होंने सोचा कि “मारपीट करूँगा तो हो-हल्ला होगा। सब लोग जाग जाएँगे। हो सकता है कि ज्यादा लड़के हो, तो उसकी धुलाई भी कर दें।”
उन्होंने अपने रूमाल में चुपके से बेहोशी की दवा डाली और अंधेरे में लघुशंका कर रहे अमर के नाक पर रख कर बोले- ‘‘अच्छा तो बच्चू, यहाँ छिपे हो। सबेरे मजा चखाता हूँ। अभी तो तुम यहीं पड़े रहो।’’
सुबह जब दादा जी सोकर उठे तो देखा कि आँगन में नौकर भोला तो सोया पड़ा है, पर अमर नहीं दिखा। उन्होंने भोला को जगाया और पूछा- ‘‘अमर कहाँ है ?’’
‘‘अमर, कौन अमर ?’’ हड़बड़ाते हुए भोला ने पूछा।
‘‘अरे बुद्धु, वही अमर जो तुम्हारे साथ रात को पहरेदारी कर रहा था।’’ दादाजी ने कहा तो उसे कुछ याद आया। बोला- ‘‘बाबू जी, लगता है बहुत गड़बड़ हो गई है।’’ और वह दौड़कर गौशाला की ओर भागा।
दादाजी भी पीछे-पीछे आए। वहाँ का दृश्य देखकर वे हतप्रभ रह गए। गौशाला में जानवरों के बीच बंधा अमर बेहोश पड़ा था। रात भर ठंड में पड़े रहने से उसे बुखार हो गया। उसे तुरंत शहर के अस्पताल में भर्ती करया गया।
तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिली.
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करनी का फल
अजय और सुमीत एक ही कक्षा के दो छात्र थे। सुमीत एक निर्धन परिवार का सीधा-सादा लड़का था जबकि अजय एक शहर के बड़े उद्योगपति का इकलौता बेटा था। माँ-बाप के अधिक लाड़़-प्यार ने उसे बेहद घमण्डी तथा जिद्दी बना दिया था। सुमीत पढ़ाई-लिखाई में हमेशा पीछे और कक्षा में होने वाली शरारतों में सबसे आगे रहता था।
सुमीत इन सबमें कभी भाग नहीं लेता था। वह कभी-कभी परेशान होकर इन शैतानियों की सूचना अपने मास्टर जी को दे दिया करता था, जिससे अजय को दण्ड भुगतना पड़ता। इसलिए अजय सुमीत को अपना दुश्मन समझ बैठा और उससे ईष्या करने लगा। वह हर वक्त सुमीत को सताता और उसको नीचा दिखाने की कोशिश करता। वह मन ही मन सुमीत से बदला लेने और उसे सबक सिखाने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में था।
आखिर उसे मौका मिल ही गया। वह दीपावली की जगमगाती रात थी। घर-घर में रोशनियों की चमक-दमक ने चारों ओर उजाला कर रखा था। सब तरफ से आतिशबाजियों व पटाखों की धमाकों से आकाश गूँज रहा था। अजय ने सोचा यही मौका है सुमीत को सबक सिखाने का। उसके शैतान दिमाग ने एक खतरनाक योजना बनायी। थोड़ी देर बाद सुमीत जब उसके घर के सामने से गुजरेगा तो वह अपना काम निपटा लेगा। जो भी नुकसान होगा उसे महज एक दुर्घटना ही समझा जाएगा और उस पर कोई इलजाम नहीं आएगा।
ज्यों ही सुमीत वहाँ से गुजरा, अजय ने उस पर कुछ बम फटाखे फेंके। बम-फटाखों की धमाकों के साथ-साथ दर्दनाक चीखों से वातावरण गूँज उठा।
अजय की चीखें सुनकर सुमीत तेजी से अजय की और दौड़ा। उसने शोर मचाकर आसपास के लोगों को इकट्ठा किया।
अजय लगभग बेहोशी की हालत में था। उसके हाथ-पाँव और चेहरे के काफी मांस जल गए थे। उसे तुरंत अस्पताल पहुँचाया गया। अजय के माता-पिता अपने पुत्र की ऐसी दुर्दशा देखकर रो पड़े।
अजय को सात दिनों तक अस्पताल में ही रहना पड़ा। बेहोशी की हालत में वह बड़बड़ाता- ‘‘सुमीत, मुझे माफ कर दो।’’ ‘‘सुमीत मुझे माफ कर दो।’’
सुमीत को बड़ा आश्चर्य होता कि अजय उससे क्यों माफी माँग रहा है ?
होश में आने पर अजय के पिताजी ने अपने बेटे से पूछा- ‘‘अजय बेटे, जरा बताना तो तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई ?’’
अजय ने बताया कि वह किस प्रकार से सुमीत पर बम फेंकने वाला था और बम उसी के हाथ में फट गया। अजय ने सुमीत तथा अपने माता-पिता सभी से माफी माँगी और वादा किया कि अब कभी किसी के लिए न तो बुरा सोचेगा नहीं करेगा।
पिताजी ने समझाया- ‘‘बेटा, हमेशा याद रखना चाहिए जो दूसरों के लिए गड्डा खोदता है वह खुद भी उसमें गिर सकता है। इसलिए हमें कभी किसी के लिए न तो बुरा सोचना चाहिए न ही करना चाहिए।
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अनुभव
मनोज दसवीं कक्षा में पढ़ता था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह खेलकूद में भी बहुत तेज था। वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी । उसके सभी पर्चे अच्छे हुए थे। इसलिए वह निश्चिन्त था। उसने निश्चय किया कि वह गर्मी की छुट्टियों में अपने पापा जी के साथ उनकी दुकान पर बैठेगा ताकि उसे कुछ अनुभव भी हो और समय भी कटे।
उसके पिता जी की शहर के सदर बाजार में किराने की दुकान थी। वे अपनी सहायता व सुविधा के लिए एक नौकर भी रखते थे। वे अक्सर मनोज से अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने को कहा करते थे। वे अभी से उसमें दुकानदारी का मोह पलने नहीं देना चाहते थे।
रात को भोजन के समय मनोज ने पापा जी से छुट्टियों में दुकान पर बैठने की बात कही।
‘‘मनोज बेटे, अभी आपको पढ़ाई की तरफ ध्यान देनी चाहिए। दुकानदारी के लिए तो सारी उमर पड़ी है।’’ पापा जी ने समझाया।
मनोज कुछ कहता उससे पहले ही उसकी मम्मी ने घुसपैठ कर दी- ‘‘मान भी जाइए ना, बस छुट्टियों में ही तो बैठने की बात है। कुछ सीख भी लेगा ताकि आवश्यकता पड़ने पर काम आ सके।’’
‘‘ठीक है, आप लोगों की यही इच्छा है तो कल से ही दुकान पर चलने के लिए तैयार हो जाओ।’’ पापा जी ने हथियार डाल दिए। मनोज का मन खुशी से झूम उठा।
अब मनोज अपने पापाजी एवं नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। धीरे-धीरे उसे भी चीजों के नापतौल, भाव आदि याद हो गए। वह ग्राहकों को सामान तौलकर देता और हिसाब कर उनसे रुपये ले लेता। धीरे-धीरे उसकी लगन, मेहनत और ग्राहकों के प्रति उसके व्यवहार से पापा जी भी आश्वस्त हो गए। दो माह कब बीत गए, उसे पता ही नहीं चला। इस बीच उसका परीक्षा परिणाम भी निकल गया। वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था।
एक दिन दुकान से घर आते समय उसके पिताजी की मोटर सायकल को एक ट्रक ने ठोकर मार दी। उन्हें कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया। उन्हें कई जगह गंभीर चोटें लगी थी, सो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मनोज और उसकी मम्मी बारी-बारी से उनके साथ अस्पताल में रहते। इस बीच उनकी सारी जमा पूँजी दवा-दारू तथा डाक्टरों की फीस में भेंट चढ़ गई। दस दिन बाद उन्हें अस्पताल से तो छुट्टी मिल गई, पर मनोज के पिता जी पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाए थे। डाक्टरो ने उन्हें कम्पलीट बेडरेस्ट की सलाह दी थी।
मनोज ने सोचा ऐसे तो काम नहीं चलेगा। कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। एक्सीडेण्ट के बाद से दुकान बंद थी, क्योंकि सिर्फ नौकर के भरोसे दुकान नहीं छोड़ा जा सकता था। उसने मम्मी से बात की कि वह स्कूल समय के अलावा बचे समय में सुबह-शाम कुछ देर नौकर के साथ दुकान पर बैठेगा, ताकि कुछ आमदनी हो और ग्राहक भी न टूटें। मम्मी पहले तो कुछ झिझकीं, पर बाद में मनोज के जोर देने पर “हाँ” कर दी।
अब मनोज नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। दुकान पहले की तरह चलने लगी।
कुछ ही दिनों में मनोज के पिता जी भी पूर्ण स्वस्थ हो गए। इस प्रकार मनोज की दुकानदारी का अनुभव समय पर काम आया।
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कछुआ और खरगोश- 2
नंदनवन में एक खरगोश रहता था। नाम था उसका- चिपकू। चिपकू बहुत घमंडी, बड़बोला तथा चटोरा था। एक दिन वह एक पेड़ के नीचे बैठा आराम कर रहा था। उधर से लोमड़ी मौसी गुजरीं। दुआ सलाम के बाद मौसी बोली- ‘‘क्या बात है बेटा चिपकू ! कुछ परेशान-से लग रहे हो।’’
चिपकू बोला- ‘‘क्या बताऊँ मौसी जी, सालों पहले एक पूर्वज ने हमारी नाक कटा के रख दी है। हमारी गिनती संसार के सबसे तेज दौड़ने वालों में होती है, पर एक कछुआ से हारकर उसने हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी है।’’
लोमड़ी मौसी बोलीं- ‘‘बेटा चिपकू, यदि तुम चाहो, तो इस कलंक को मिटा सकते हो।’’
चिपकू ने आश्चर्य से पूछा- ‘‘वो कैसे मौसी जी ?’’
लोमड़ी मौसी बोलीं- ‘‘एक बार फिर कछुआ के साथ दौड़ लगाओ और उसे हराकर इस कलंक को हमेशा के लिए धो डालो।’’
चिपकू ने पूछा- ‘‘क्या ऐसा हो सकता है मौसी ?’’
लोमड़ी मौसी बोलीं- ‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं।’’
चिपकू प्रसन्नता से बोला- ‘‘मौसी, यदि तुम एक बार फिर कछुआ को दौड़ के लिए राजी कर दो, तो मैं ही नहीं, पूरी कछुआ जाति आपका अहसान मानेगी।’’
लोमड़ी मौसी बोली- ‘‘ठीक है, मैं कोशिश करती हूँ।’’
लोमड़ी मौसी कछुआ के पास गई। पहले तो वह ना-नुकूर करता रहा, पर लोमड़ी मौसी के बार-बार उकसाने और धिक्कारने पर दौड़ने के लिए राजी हो गया।
निश्चित दिन और समय पर दौड़ शुरु हुआ। महाराज शेर सिंह इसके निर्णयक बने। मुकाबला देखने के लिए जंगल लाखों जानवर इकट्ठे हुए थे। महामंत्री गजपति नाथ ने हरी झंडी दिखाकर दौड़ शुरु करवाई।
खरगोश बहुत तेज दौड़ा। कुछ दूर जाने के बाद उसने पीछे मुड़कर देखा, तो कछुआ नहीं दिखा, पर चने के हरे-भरे खेत दीख गए। वह खुद को न रोक सका। चने तोड़-तोड़कर जल्दी-जल्दी खाने लगा। थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगा और वह बेहोश हो गया।
उधर कछुआ ने धीरे-धीरे चलकर दौड़ पूरा कर लिया।
महाराज शेरसिंह ने उसे विजेता घोषित कर पुरस्कृत किया।
कीड़ों से बचाने के लिए किसान ने चने के खेत में कीटनाशक दवाई का छिड़काव किया था। बिना साफ किए खाने से कुछ दवाई चिपकू खरगोश के पेट में चली गई थी।
देर रात जब उसे होश आया तो वह समझ गया कि एक बार फिर बाजी हार चुका है।
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दयालू मदन
गुजरात राज्य में समुद्र के किनारे एक गाँव था- रामपुर। गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय था- समुद्र के पानी से नमक बनाना तथा मछली पकड़ना। उसे वे पास के नगर के बाजार में ले जाकर बेच देते, जिससे अच्छी आमदनी हो जाती थी।
उसी गाँव में मदन अपनी माँ के साथ रहता था। मदन जब तीन साल का था, तभी उसके पिताजी की मृत्यु एक बस दुर्घटना में हो गई थी। बड़ी मुश्किल से पाल-पोसकर उसकी माँ ने उसे बड़ा किया।
दोनों माँ-बेटे बहुत ही धार्मिक तथा दयालु प्रवृत्ति के थे। वे अन्य गाँव वालों की तरह मछली नहीं मारते थे। वे समुद्र के पानी से नमक बनाते थे। मदन उसे शहर के बाजार में ले जाकर बेच आता। इससे उसे बहुत कम पैसे मिलते। इसलिए कई बार मदन और उसकी माँ को भूखे ही रह जाना पड़ता।
एक दिन मदन ने अपनी माँ से कहा कि क्यों न हम भी समुद्र में ढेर सारा मछली मारकर पैसा कमाएँ, पर माँ ने साफ मना कर दिया।
एक बार मदन की माँ बीमार पड़ गई। मदन पड़ोसियों से उधार लेकर माँ को इलाज कराने लगा, पर माँ की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि वह दिन-प्रतिदिन कर्ज से डूबता ही जा रहा था। मदन इसी चिंता में एक दिन समुद्र के किनारे घूम रहा था, तभी ऊँची लहर के साथ एक बड़ी मछली भी आ गई, जो तट पर ही रह गई।
मदन सोचने लगा कि यदि वह इस मछली को ले जाकर बाजार में बेच दे, तो खूब पैसा मिलेगा और माँ का अच्छे से इलाज हो जाएगा।
तभी उसकी अंतरात्मा से आवाज आई- ‘‘ये क्या सोच रहे हो मदन ? यदि तुमने ऐसा किया तो तुम्हारी माँ तुम्हें कभी माफ नहीं करेंगी।’’
मछली पानी में जाने के लिए तड़पने लगी। यह देखकर मदन को उस पर दया आ गई। उसने बिना देर किए मछली को उठाकर समुद्र में डाल दिया।
‘‘मदन, तुम बहुत अच्छे हो। तुमने मेरी जान बचाई है। मैं तुम्हारी सहायता करूँगी। तुम यहीं रूको।’’ उस मछली ने कहा और समुद्र में चली गई।
मछली को मनुष्य की भाषा में बोलते देख मदन आश्चर्य में पड़ गया। वह जिज्ञासावश समुद्र के किनारे खड़ा रहा।
कुछ ही देर में मछली तट पर आई और बोली- ‘‘यह मोती बहुत कीमती है। इसे बेचकर तुम अपनी गरीबी दूर करो।’’
मदन उसे ले जाकर शहर में बेच दिया। इससे उसे बहुत पैसे मिले, इससे वह अपनी माँ का अच्छे से इलाज करा सका और माँ-बेटे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।
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सबक
बहुत पुरानी बात है। नंदनवन में एक बहुत ही बड़ा-सा तालाब था। उसके किनारे एक बेल का भी पेड़ था। इसी पेड़ पर एक नटखट बंदर रहा था। वह दिन भर सारे जंगल में घूम-घूम उछल-कूद करता रहता था। इस पेड़ से उस पेड़ और इस डाली से उस डाली पर वह छलांग लगाकर ऐसे-ऐसे करतब दिखाता, कि दूसरे जानवर दाँतों तले ऊँगली दबा लेते। बंदर को शरारत करने में बहुत मजा आता था।
तालाब में पानी पीने के लिए उस जंगल के लगभग सभी जानवर आते थे। नटखट बंदर उन्हें खूब सताता। वह कभी उन्हें बेल या पत्थर फेंककर मारा करता, तो कभी उनकी पूँछ या कान खींचकर पेड़ पर जा बैठता। सभी जानवर पेड़ पर नहीं चढ़ सकते। अगर कोई पेड़ पर चढ़ भी जाता, तो बंदर उसको देखते ही देखते हवा में गोता लगाता हुआ दूसरे पेड़ पर जा पहुँचता और वह जानवर हाथ मलता रह जाता।
सभी जानवर बंदर की इन कारगुजारियों से परेशान थे।
एक दिन भालू ने एक सभा बुलाई। उसने कहा- ‘‘मनुष्य से मिलते-जुलते इस जानवर ने मनुष्य के समान ही हमारी नाक में दम कर रखा है। इसे किसी प्रकार से सबक सिखाना होगा, ताकि भविष्य में वह किसी को परेशान न कर सके।’’
‘‘लेकिन वह तो हमारी पकड़ में आता ही नहीं, हम उसे कैसे सबक सिखाएँ ?’’ एक नन्हे खरगोश ने अपनी चिंता जताई।
बात सही थी। सभी सोच में पड़ गए।
‘‘मैं उसे सबक सिखाऊँगी।’’ एक नन्हीं गिलहरी की आवाज सुनकर सभी जानवर चौक पड़े। सामने आकर गिलहरी ने अपना परिचय देकर योजना बताई, जो सबको पसंद आई। सबने उसे शुभकामनाएँ दी और सभा समाप्त हो गई।
योजनानुसार अगले दिन कुछ जानवर तालाब पर पानी पीने गए। स्वभाव से मजबूर बंदर पेड़ की डाली पर आराम से बैठकर बेल तोड-तोड़कर उन्हें मारने लगा। इधर नन्हीं गिलहरी चुपचाप पेड़ पर चढ़ गई और फूर्ती से बंदर की पूँछ को अपने नुकीली दाँतों से काट दिया, जो कटकर नीचे गिर गया। बंदर दर्द से बिलबिला उठा।
अब जंगल के सारे जानवर बंदर की कटी पूँछ को पकड़ कर ‘दुमकटा बंदर’ ‘दुमकटा बंदर’ उसे कहकर चिढ़ाने लगे।
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जंगल में प्रजातंत्र
पुराने जमाने की बात है। एक बहुत ही बड़ा वन्य प्रदेश था। नाम था उसका – फारेस्टलैण्ड। आधुनिक अधिकतर राज्यों की तरह फारेस्टलैण्ड में भी लोकतंत्रीय शासन पद्धति थी। साथ ही भारत और इंगलैण्ड की तरह संसदीय शासन प्रणाली भी। जिस प्रकार भारत में 28 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं, ठीक उसी प्रकार फारेस्टलैण्ड में भी 20 राज्य थे। जैसे सिंहभूमि, टाइगर स्टेट, सूकरगढ़, मूक राज्य, शशक राज्य, खगपुर, हस्तिनापुर, हिरण्यपुर, व्याघ्रप्रांत, सियारपुर इत्यादि।
लोकतंत्र में अंतिम सत्ता जनता के हाथों मे होती है। वही अपनी सरकार चुनती है। सिंहभूमि तथा टाइगर स्टेट की आबादी कम होने के कारण वहाँ स्वीट्जरलैण्ड की तरह प्रत्यक्ष प्रजातंत्र था जबकि अन्य राज्यों की आबादी अत्याधिक होने के कारण वहाँ भारत की तरह अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र या प्रतिनिधियात्मक प्रजातंत्र थी।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व प्रजातंत्र के मूलमंत्र हैं. इसलिए यहाँ की सभी जनता कानून या विधि के सामने समान थे। स्वतंत्रतापूर्वक कहीं भी घूम फिर सकते थे। उनके एक प्रांत से दूसरे प्रांत में आने जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। सभी मिल जुलकर रहते थे। शेर और हिरण एक दूसरे के कंधे पर हाथ डालकर सिर्फ चुनाव के समय ही नहीं; किसी भी समय घूमते देखे जा सकते थे। यहाँ शेर भी घास खाता था।
एक बार प्रधानमंत्री शेरसिंह अपने किसी काम से शशक राज्य गए हुए थे। अचानक उनकी दृष्टि हिरण्यपुर की राजकुमारी हरिणा पर पड़ी।
वहां हरिणा अपने पति हिरण्यकष्यप के साथ वहाँ सैर सपाटे के लिए आई थी। शेरसिंह का जी ललचाया। सोचा- ‘‘सुना है हिरण का माँस बहुत ही कोमल और स्वादिष्ट होता है। मैंने तो जीवन में कभी चखा नहीं है। पर चाहूँ तो आज चखने को क्या पेट भर खाने को मिल जाएगा।’
उसने इधर-उधर देखा। किसी को न पाकर वह कुलाँचे भर रही हरिणा को दबोच लिया। शेरसिंह का दुर्भाग्य था कि हरिणा को खींचते हुए ले जाते समय उसे शशक राज्य का राजकुमार शशांक मिल गया। उसने शेरसिंह से कहा- ‘‘प्रधानमंत्री जी, ये आप क्या अनर्थ कर रहे हैं ? आप संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। आप इसकी जीवन की स्वतंत्रता का हनन कर रहे हैं।’’
परंतु शेरसिंह पर तो कुछ और ही धुन सवार थी। उसने शशांक को भी मारना चाहा, पर दुर्भाग्य से वह उसे पकड़ न सका, क्योंकि शशांक एक बिल में घुस गया और वहीं से बोला- “मंत्री जी, आप भूल रहे हैं कि हमारे देश में प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली है और अगर हम चाहें तो आपकी सरकार को जब चाहे तब हटा सकते हैं।’’
शेरसिंह दहाड़ा- ‘‘अब चुप, बड़ा आया मुझे सत्ताच्यूत करने वाला।’’ और वह हरिणा को खींचते हुए एक गुफा में ले गया।
शशांक जब बाहर निकला तो उससे एक हिरण ने पूछा, “क्या आपने इधर किसी हिरणी को देखा है ?’’
शशांक ने पूरी कहानी उसे सुना दी। रोते-बिलखते हिरण्यकष्यप अपने राज्य लौटा और पूरी बात अपने पिता तथा ससुर को बतायी।
शशांक ने भी अपने पिता को शेरसिंह की कहानी बताई। अगले दिन देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने यह खबर छापी। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी समाचार प्रसारित हुए। जगह रैलियाँ निकाली गईं। शेरसिंह के पुतले जलाए गए।
राष्ट्रपति जटायु ने देश की बिगड़ती हालत को देखकर संसद की आकस्मिक बैठक बुलाई। विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया, जो भारी बहुमत से पारित हो गया। शीघ्र ही देश में मध्यावधि चुनाव कराए गए, जिसमें सूकरमल की पार्टी भारी बहुमत से जीत गई जबकि शेरसिंह सहित उसके कई दिग्गज मंत्रियों की जमानत जब्त हो गई।
इस प्रकार फारेस्टलैण्ड में फिर से लोकतंत्र की बहाली हो गई।
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सोनू की चतुराई
बहुत पुरानी बात है। नन्दनवन में अन्य बहुत सारे जीव-जंतुओ के साथ मोनी नामक एक मैना भी रहती थी। वह बहुत घमंडी तथा मनमौजी स्वभाव की थी। दूसरों को परेशान करने, उनकी हँसी उड़ाने में उसे बहुत आनंद आता था। यही कारण है कि उसे कोई भी पसंद नही करता था। सभी उससे दूर ही रहते थे।
एक दिन की बात है। शाम हो चुकी थी, लेकिन उसे खाने को कुछ भी नहीं मिला था। उसे बहुत जोर की भूख लगी थी। तभी उसे सड़क किनारे रोटी जैसी कोई चीज दिखी। पास जाकर देखा। रोटी ही थी। एकदम सूखी और कड़क।
नहीं मामा से काना भला, सोचते हुए वह उस पर टूट पडी। उसने रोटी को उलट-पलटकर साफ किया। फिर चोंच से रोटी को तोड़ने की प्रयास किया। पर रोटी थी, कि टूटने का नाम ही न ले।
मोनी गुस्से से जोर-जोर से रोटी पर चोंच मारने लगी। रोटी तो न टूटी, लेकिन मोनी की चोच जख्मी जरूर हो गई।
उधर पुराने बरगद के पेड़ पर बैठा सोनू कबूतर मोनी को बहुत देर से देख रहा था। वह मोनी के पास आकर बोला- ‘‘मोनी बहन, यदि तुम इस रोटी का आधा हिस्सा मुझे दोगी, तो मैं तुम्हारी रोटी को खाने लायक बना दूँगा।’’
मोनी ने बड़े ही रूखेपन से जवाब दिया- ‘‘मुझे तुम्हारे सहयोग की कोई जरूरत नहीं है। मैं खुद इसे तोड़ सकती हूँ।’’
वह और भी जोर-जोर से चोंच मारने लगी। रोटी तो नहीं टूटी, हाँ उसके चोंच से खून टपकना शुरू हो गया। मोनी ने अगल-बगल देखा, जब कोई न दिखा, तो उसने रोटी को पास ही एक झाड़ी में फेंक कर उड़ चली।
उसे झाड़ी में फेंकते हुए सोनू कबूतर ने देख लिया। वह बिना देर किए झाड़ी के पास गया। रोटी को चोच में दबाकर पास के तालाब पर गया। रोटी को पानी में डुबाया। लाकर किनारे रखा।
पाँच मिनट में ही रोटी मुलायम हो गई। उसे खाकर सोनू ने अपनी भूख मिटाई।
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उपकार का बदला
बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में रूपा नाम की एक सुंदर, बुद्धिमान तथा चंचल लड़की रहती थी। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसकी प्यारी-प्यारी बातों ने न केवल उसके माता-पिता और परिवार के लोगों को ही बल्कि पूरे गाँव वालों को मोहित कर रखा था। वह जहाँ भी जाती, लोग उसे पलकों पर बिठा लेते। वह कभी बीमार पड़ती तो पूरे गाँव में सन्नाटा छा जाता था।
एक बार रूपा नदी के किनारे कुछ बच्चों के साथ खेल रही थी, तभी एक बड़ी-सी मछली लहरों के साथ किनारे तक आ पहुँची, परंतु वापस न जा सकी। ऐसी स्थिति में नदी के तट पर वह तड़पने लगी।
रूपा ने अपनी सहेलियों की मदद से उसे वापस नदी में पहुँचा दिया। अब वह मछली उन बच्चों के सामने कलाबाजियाँ खाती हुई तरह-तरह के खेल दिखाने लगी। रूपा उसे पकड़ने के लिए मचलने लगी।
रूपा उस मछली को पकड़ने की कोशिश में उसके पीछे-पीछे बढ़ती चली गई। मछली रूपा से अधिक चंचल थी। वह कभी डुबकी लगाकर दूर निकल जाती तो कभी रूपा के इतने पास आ जाती कि वह उसे हाथ बढ़ाकर पकड़ ले।
खेल-खेल में रूपा नदी के बीचों-बीच उस जगह पहुँच गई जहाँ भँवर था। एक झटके से वह भँवर में जा फँसी। मछली अब भी उसके सामने थी पर रूपा अब डूबने लगी थी।
रूपा को डूबते हुए देख कर सभी बच्चे डर गए। वहां उपस्थित कोई भी बच्चा तैरना नहीं जानता था, इसलिए सामने नहीं आया।
अब वह मछली, जिसकी जीवन रक्षा कुछ समय पहले रूपा ने की थी, उसके पास आयी। उसने रूपा को अपने पीठ पर बिठा कर नदी के तट पर लाकर छोड़ दिया।
इस प्रकार उसने रूपा को डूबने से बचा लिया।
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सोने के भाव बिके बैगन
बात बहुत पुरानी है। रतनपुर में दो भाई रहते थे। उनका नाम था- दुर्जन और सुजन। दुर्जन जितना दुष्ट था, सुजन उतना ही नेक और सीधा-सादा किंतु वह बहुत ही गरीब था।
दुर्जन सुजन की गरीबी पर खूब हँसता। वह भले ही दूसरों को रुपया-पैसा आदि उधार में दे देता, किंतु अपने छोटे भाई सुजन को फूटी-कौड़ी भी नहीं देता था।
एक दिन सुजन की पत्नी ने अपने पति से कहा- ‘‘क्यों जी, हम कब तक इस गाँव में भूखों मरेंगे। यहाँ तो ठीक से मजदूरी भी नहीं मिलती।’’
‘‘तो तुम्हीं बताओ ना कि मैं क्या करूँ।’’ सुजन ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा।
‘‘क्यों न हम अपने खेतों की बैगन को पडोसी देश में ले जाकर बेच दें। सुना है वहाँ के लोग बहुत धनी हैं। अच्छे दाम मिल जाएँगे।’’ पत्नी का जवाब था।
बात सुजन को भी जँच गई। दूसरे ही दिन वह बोरियों में बैगन भर कर अपने बैलगाड़ी में लादा और पड़ोसी राज्य की ओर चल पड़ा।
पड़ोसी राज्य के लोगों ने पहले कभी बैगन नहीं खाया था। बैगन खाकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने सब बैगन खरीद लिये और उसके वजन के बराबर सोना-चाँदी तौल दिया।
सुजन बहुत खुश हुआ। धनवान बनकर वह अपने गाँव लौट आया।
दुर्जन ने जब अपने छोटे भाई सुजन को अमीर होते देखा, तो वह इसका राज जानने के लिए सुजन के पास आया। सुजन ने सब कुछ सही-सही बता दिया।
दुर्जन भी कुछ दिन बाद अपनी गाड़ी में बहुत सारा बैगन लाद कर पड़ोसी राज्य की ओर चल पड़ा। उधर पड़ोसी राज्य के लोग अधिक मात्रा में बैगन खाने से बीमार पड़ने लगे। जब उन्होंने सुजन के हम शक्ल दुर्जन को बैगन लेकर आते देखा तो उसे सुजन समझकर मार-पीटकर अपने देश से भगा दिया।
दुर्जन यह समझ भी नहीं पा रहा था कि आखिर उसका कसूर क्या है ?
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लोमड़ी मौसी की चतुराई
किसी जंगल में एक शेर रहता था। नाम था उसका – शेरसिंह। उसे अपने बल का बड़ा घमंड था। वह प्रतिदिन बहुत से जानवरों को मारता था। एक – दो को खाता, बाकि वैसे ही मारकर फेंक देता था। शेरसिंह से सभी जानवर बहुत डरते थे। जिस रास्ते से वह निकल जाता, सभी इधर – उधर छिप जाते।
इस विनाश को देख कर वन के सभी जानवरों ने सोचा कि यही दशा रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब इस वन में हम जानवरों का नामोनिशान ही मिट जाएगा। सभी शेरसिंह के आतंक से छुटकारा पाना चाहते थे।
एक दिन हिरण, चिड़िया, खरगोश, हाथी, बंदर, भालू सभी इकट्ठे हुए। हिरण बोला, ‘‘क्या करें, हमारा तो जीना मुश्किल हो गया है। न दिन में चैन है न ही रात को आराम।’’
‘‘इस संकट से हमेँ लोमड़ी मौसी ही बचा सकती है। हम सब उनके पास चलें, शायद मुक्ति के लिए वे कुछ उपाय बता सकेंगी।’’ नन्ही चिड़िया की बात सभी ने मान ली।
सारे जानवर मिलकर बूढ़ी लोमड़ी मौसी के पास गए। लोमड़ी ने सभी की बात ध्यान से सुनी और कुछ सोच कर अपनी योजना उन्हें बताई।
योजना के अनुसार दूसरे ही दिन सभी जानवर झुण्ड बनाकर शेरसिंह की गुफा के पास इकठ्ठे हुए। जानवरों के आने का पता चलने पर शेरसिंह गुफा से बाहर निकला और गरजकर पूछा- ‘‘तुम सब लोग यहाँ किसलिए आए हो ?’’
लोमड़ी ने आँखों में आँसू भरकर नम्रतापूर्वक कहा, “महाराज ! आप इस जंगल के राजा है। आपको गुफा में रहना और भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकना शोभा नहीं देता। हमारी आपसे प्रार्थना है कि हम लोग आपके रहने के लिए एक बड़ा-सा महल बनाएँगें, जिसमें आप आराम से, सुख – चैन से रहेंगे। रही बात भोजन की, तो हममें से एक पशु बारी – बारी से आपके भोजन के लिए प्रतिदिन आपकी सेवा मे उपस्थित हो जाया करेगें। इससे आपको भी असुविधा नहीं होगी और हम जानवरों का वंश भी चलता रहेगा।
शेरसिंह को जानवरों की बात जँच गई। उसने कहा, “मुझे तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है, पर शर्त यह है कि महल जल्द से जल्द तैयार हो और एक दिन भी यदि मेरे आहार के लिए पशु समय पर नहीं पहुँचा, तो मैं तुम सबको एक दिन में ही मार डालूँगा।”
जंगल के सभी जानवर अपनी प्रार्थना स्वीकार होने पर लौट गए।
उन्होंने महल बनाने का काम उसी दिन से ही शुरू कर दिया और बारी-बारी से किसी न किसी जाति के पशु दोपहर में भोजन के समय शेरसिंह की गुफा में जाने लगे, जिसे खाकर वह अपनी भूख मिटाता।
कुछ ही दिनों में जंगल के भीतर एक बड़ा-सा महल भी बनकर तैयार हो गया। अब शेरसिंह महल में रहने लगा।
एक दिन लोमड़ी मौसी ने मौका देखकर उस महल का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया। कुछ देर बाद ही शेरसिंह की दहाड़ से पूरा जंगल गूँजने लगा।
डरते – डरते सब जानवर महल के पास पहुँचने लगे। महल के बाहर बैठी लोमड़ी मौसी ने सारे जानवरों को इस घटना के बारे में बता दिया कि शेरसिंह अब हमेशा के लिए उस महल में बंद हो गया है। एक-दो दिन बाद ही शेरसिंह की भूख – प्यास से मौत हो गई और जंगल के सभी जानवरों को उसके आतंक से मुक्ति मिल गई।
सबने लोमड़ी मौसी की बुद्धि की खूब प्रशंसा की और उसका बहुत आदर करने लगे।
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रोजी-रोटी
एक मदारी था। बंदर का खेल दिखाने वाला। नाम था उसका- रामा। उसके पास दो बंदर थे। आसपास के गाँवों में मदारी रामा बंदरों का खेल दिखाकर अपनी आजीविका चला रहा था। उसका खेल न केवल छोटे-छोटे बच्चे वरन् बड़े लोग भी चाव से देखते थे।
बंदरिया के लटके-झटके, नखरे, उनकी शादी, रूठना-मनाना, बंदर द्वारा बंदरिया को कम दहेज लाने पर ताना मारना, भरपेट खाना न देना, शराब पीकर मारपीट करना, रूठ कर बंदरिया का मायके चली जाना, प्रताड़नाओं से त्रस्त बंदरिया द्वारा अपने शरीर पर मिट्टी तेल छिड़क कर आत्मदाह कर लेना इत्यादि के दृश्य कभी लोगों को हँसाते, तो कभी रूला देते। खेल की समाप्ति पर लोग अपनी इच्छानुसार जो भी रुपये-पैसे या अनाज दे देते, उसी से रामा अपना तथा दोनों बंदरों का गुजारा चलाता था। चूँकि रामा के बीबी-बच्चे न थे, इस कारण वह दोनों बंदरों को ही अपना परिवार समझता और उन्हें अपने बच्चों की तरह ही प्यार करता था।
एक दिन रामा अपना खेल दिखाने रामपुर पहुँचा। वह अपना डमरू बजाते हुए आगे-आगे जा रहा था। बच्चों के झुंड उसके पीछे जुड़ते चले जा रहे थे। आखिरकर पुराने बरगद पेड़ के नीचे वह रूक गया और बैठकर कुछ देर डमरू बजाता रहा। जब बहुत सारे बच्चे इकट्ठे हो गए, तो उसने अपना खेल दिखाना प्रारंभ किया। खेल में बच्चों को बहुत मजा आया।
इन दर्शक बच्चों में एक शहरी बच्चा अमर भी था। वह छुट्टियों में अपने दादा-दादी से मिलने गाँव आया हुआ था। उसने कभी बंदर नहीं देखे थे पर पढ़ा और सुना जरूर था कि बंदर बहुत नटखट और फुर्तीले होते हैं, लेकिन रामा मदारी के बंदर तो उसे बहुत कमजोर, सुस्त और बीमार से लगे। उसने रामा से पूछा- ‘‘बाबा, क्या ये असली बंदर हैं ?’’
‘‘हाँ बेटा, ये असली बंदर हैं।’’ रामा ने जवाब दिया।
अमर ने पूछा- ‘‘पर बाबा, मैंने तो सुना और पढ़ा था कि बंदर बहुत चुस्त, फुर्तीले और नटखट होते हैं, पर ये तो एकदम सुस्त और बीमार जान पड़ते हैं।’’
रामा बोला- ‘‘हाँ बेटा, बंदर वाकई बहुत चुस्त, फुर्तीले और नटखट होते हैं, पर ये दोनों बंदर जब बहुत छोटे थे, तभी से मुझ गरीब के साथ हैं और खेल-तमाशा दिखाकर अपना गुजारा कर रहे हैं।’’
‘‘क्या सभी बंदर खेल-तमाशा दिखाकर अपना गुजारा करते हैं ?’’ बड़े भोलेपन से अमर ने पूछा, जिसका कोई संतोषजनक जवाब रामा के पास न था, पर इस सवाल ने उसे गहरी सोच में डाल दिया। उस दिन रामा जल्दी घर आ गया।
‘‘क्या सभी बंदर खेल-तमाशा दिखाकर अपना गुजारा करते हैं ?’’ यही सवाल उसके मस्तिष्क में गूँज रहे थे। उसने सोचा अपने स्वार्थ के खातिर इन बेजुबान जानवरों को बाँधकर रखने और डंडे के जोर पर हुक्म चलाने का उसे कोई हक नहीं है। वह अपनी आजीविका कुछ अन्य काम करके भी चला सकता है।
बहुत सोचने के बाद रामा ने अपने दोनों बंदरों को पास के जंगल में ले जाकर बंधनमुक्त कर दिया।
दोनों बंदर एकटक रामा का मुँह ताकते रहे। तीनों की आँखों में आँसू थे। दोनों बंदर रामा की टाँगों से लिपट गए। रूंधे गले से रामा बोला- ‘‘जाओ दोस्त, जाओ, अपने लोगों के बीच। अलविदा।’’
रामा घर की ओर लौट पड़ा। रामा को बंदरों से बिछुडने का दुख तो था, पर मन में इस बात की संतुष्टि थी कि बंदरों को उनके असली घर में पहुँचा दिया। वे तब तक रामा को देखते रहे जब तक कि रामा उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गया।
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लालच का फल
पुराने जमाने की बात है। जामनगर में कपड़े का एक बड़ा व्यापारी रहता था। नाम था उसका- फोकटमल। वैसे उसका असली नाम तो सेठ किरोड़ीमल था, परंतु हर समय मुफ्त का माल ढूँढते रहने के कारण उसका नाम सेठ फोकटमल पड़ गया था। यथा नाम तथा गुण। वह हमेशा निन्यानबे के फेर में पड़ा रहता था। उस पर हरदम एक ही धुन सवार रहती थी कि किस तरह अधिक से अधिक धन कमाया जा सके।
वह कंजूस भी इतना अधिक था कि स्वयं भी बीमार पड़ता तो दवा-दारू पर खर्च नहीं करता। वह खाना घर में खाता, तो पानी बाहर पीता। पानी की बचत के लिए वह नहाता भी बहुत कम था। उसके घर में शायद ही कभी दो सब्जी बनती हो। सिर्फ त्यौहार एवं विशिष्ट अवसरों पर ही उसके घर में दाल बनता। घर में नमक खत्म हो जाये, तो कई दिनों तक बिना नमक के ही काम चलाना पड़ता।
कपड़े के नाम पर वह धोती के साथ एक बनियान पहनता था। कभी कहीं जाना होता तो अपने विवाह के समय सिलवाया गया कुर्ता कंधे पर डालकर चला जाता ताकि लोग यह न समझें कि उसके पास कुर्ता नहीं है। वैसे उन्होंने उस कुर्ते को शादी के बाद कभी पहना ही नहीं। उनके कपड़े का रंग मटमैला ही रहता क्योंकि वे साबुन के प्रयोग से सर्वथा वंचित जो थे। सेठजी के बीबी-बच्चे उनसे परेशान थे क्योंकि न तो वे स्वयं अच्छा खाते-पीते और न उन्हें खाने-पीने देते। चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए, यही सेठजी के आदर्श थे।
एक समय की बात है। वे कपड़ा बेचने श्यामनगर बाजार जा रहे थे। रास्ते में लम्बा-चौड़ा जंगल पड़ता था। फोकटमल अभी जंगल में घुसा ही था कि सामने से डाकुओं का दल आ धमका। डर के मारे उसके होश उड़ गए।
डाकुओं ने फोकटमल के सारे पैसे तथा कपड़े लूट लिए और उसे खूब पीटने के बाद एक पेड़ से बाँधकर भाग गए।
कुछ देर बाद वह होश में आया। लूट जाने का दुख तो था ही, वहाँ बंधन में पडे़-पड़े भूखे-प्यासे मरने तथा जंगली जानवरों का आहार बन जाने की भी आशंका थी। वे जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगे।
उधर से एक साधु महाराज कहीं जा रहे थे। फोकटमल की आवाज सुनकर वे उसके पास आए। उसे बंधनमुक्त करने के बाद पूछे- ‘‘वत्स, तुम्हारी दशा कैसे हुई।’’
राते बिलखते फोकटमल ने सारी राम कहानी साधु महाराज को कह सुनाई। साधु महाराज ने धीरज बंधाते हुए कहा- ‘‘चिंता मत करो ! प्रभु सब कुछ ठीक कर देंगे।’’
‘‘क्या खाक ठीक होगा महाराज, मैं तो किसी को मुँह दिखाने के भी काबिल नहीं रहा। कल का सेठ किरोड़ीमल आज सड़क पर आ गया।’’ सेठ ने कहा।
साधु महाराज को सेठ पर दया आ गई। उन्होंने पूछा- ‘‘कितने रुपयों के कपड़े थे।’’
सेठ ने कहा- ‘‘लगभग सत्रह सौ रुपये के थे महाराज।’’
साधु महाराज ने अपने कमण्डल से एक-एक करके सौ-सौ रुपये के सत्रह नोट निकाले और बोले- ‘‘ये रखो तुम्हारे सत्रह सौ रुपये।’’
सेठ फोकटमल की आँखे खुली की खुली रह गईं। उसे लालच के भूत ने धमकाया। वह संभलकर बोला- ‘‘महाराज, मैंने सत्रह सौ नहीं, सत्रह हजार रुपये बताये थे।’’
‘‘कोई बात नहीं, ये लो सत्रह हजार रूपये।’’ कहते हुए साधु महाराज ने एक-एक करके बहुत से सौ-सौ रूपये के नोट निकालकर दे दिए। पर फोकटमल के लालच की भी सीमा न थी। बोला- ‘‘महाराज, मैंने सत्रह हजार नहीं, सत्तर हजार रुपये कहा था।’’
फोकटमल के लालच को देखकर साधु महाराज थोड़ा परेशान जरूर हुए, फिर भी मन ही मन कुछ निर्णय लेकर कहा- ‘‘ठीक है, ये लो सत्तर हजार रूपए।’’
फोकटमल अब सत्तर हजार रूपए लेकर घर लौटने लगा। रास्ते में उसने सोचा यदि साधु महाराज का कमंडल ही उसे मिल जाए तो कुछ भी किए बगैर वह रातों-रात अरबपति बन जाए। वह तेजी से जंगल की ओर लौटने लगा। कुछ ही दूरी पर उसे साधु महाराज भी मिल गए। वह बडे़ प्रेम से बोला- ‘‘महाराज ये सत्तर हजार रुपए आप अपने पास रख लीजिए और कृपा कर अपना कमंडल मुझे दे दीजिए।
‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा। ये लो।’’ साधु महाराज ने कहा और उसे अपना कमण्डल दे दिया।
कमण्डल पाकर फोकटमल की खुशी का ठिकाना न रहा। वह साधु महाराज को धन्यवाद देकर घर की ओर प्रस्थान किया। घर पहुँचकर वह जैसे ही कमण्डल में हाथ डालकर बाहर निकाला तो कुछ भी नहीं निकला। तीन-चार बार ऐसा करने पर जब कुछ भी न मिला तो उसने अपना सिर पीट लिया।
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अनुभव
मनोज दसवीं कक्षा में पढ़ता था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह खेलकूद में भी बहुत तेज था। वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी । उसके सभी पर्चे अच्छे हुए थे। इसलिए वह निश्चिन्त था। उसने निश्चय किया कि वह गर्मी की छुट्टियों में अपने पापा जी के साथ उनकी दुकान पर बैठेगा ताकि उसे कुछ अनुभव भी हो और समय भी कटे।
उसके पिता जी की शहर के सदर बाजार में किराने की दुकान थी। वे अपनी सहायता व सुविधा के लिए एक नौकर भी रखते थे। वे अक्सर मनोज से अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने को कहा करते थे। वे अभी से उसमें दुकानदारी का मोह पलने नहीं देना चाहते थे।
रात को भोजन के समय मनोज ने पापा जी से छुट्टियों में दुकान पर बैठने की बात कही।
‘‘मनोज बेटे, अभी आपको पढ़ाई की तरफ ध्यान देनी चाहिए। दुकानदारी के लिए तो सारी उमर पड़ी है।’’ पापा जी ने समझाया।
मनोज कुछ कहता उससे पहले ही उसकी मम्मी ने घुसपैठ कर दी- ‘‘मान भी जाइए ना, बस छुट्टियों में ही तो बैठने की बात है। कुछ सीख भी लेगा ताकि आवश्यकता पड़ने पर काम आ सके।’’
‘‘ठीक है, आप लोगों की यही इच्छा है तो कल से ही दुकान पर चलने के लिए तैयार हो जाओ।’’ पापा जी ने हथियार डाल दिए। मनोज का मन खुशी से झूम उठा।
अब मनोज अपने पापाजी एवं नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। धीरे-धीरे उसे भी चीजों के नापतौल, भाव आदि याद हो गए। वह ग्राहकों को सामान तौलकर देता और हिसाब कर उनसे रुपये ले लेता। धीरे-धीरे उसकी लगन, मेहनत और ग्राहकों के प्रति उसके व्यवहार से पापा जी भी आश्वस्त हो गए।
दो माह कब बीत गए, उसे पता ही नहीं चला। इस बीच उसका परीक्षा परिणाम भी निकल गया। वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था।
एक दिन दुकान से घर आते समय उसके पिताजी की मोटर सायकल को एक ट्रक ने ठोकर मार दी। उन्हें कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया। उन्हें कई जगह गंभीर चोटें लगी थी, सो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
मनोज और उसकी मम्मी बारी-बारी से उनके साथ अस्पताल में रहते। इस बीच उनकी सारी जमा पूँजी दवा-दारू तथा डाक्टरों की फीस में भेंट चढ़ गई। दस दिन बाद उन्हें अस्पताल से तो छुट्टी मिल गई, पर मनोज के पिता जी पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाए थे। डाक्टरो ने उन्हें कम्पलीट बेडरेस्ट की सलाह दी थी।
मनोज ने सोचा ऐसे तो काम नहीं चलेगा। कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। एक्सीडेण्ट के बाद से दुकान बंद थी, क्योंकि सिर्फ नौकर के भरोसे दुकान नहीं छोड़ा जा सकता था। उसने मम्मी से बात की कि वह स्कूल समय के अलावा बचे समय में सुबह-शाम कुछ देर नौकर के साथ दुकान पर बैठेगा, ताकि कुछ आमदनी हो और ग्राहक भी न टूटें। मम्मी पहले तो कुछ झिझकीं पर बाद में मनोज के जोर देने पर “हाँ” कर दी।
अब मनोज नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। दुकान पहले की तरह चलने लगी।
कुछ ही दिनों में मनोज के पिता जी भी पूर्ण स्वस्थ हो गए। इस प्रकार मनोज की दुकानदारी का अनुभव समय पर काम आया।
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सुमति
बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में एक लड़की रहती थी। नाम था उसका – सुमति। वह बहुत सुंदर तथा बुद्धिमान लड़की थी। जब वह आठ वर्ष की थी, तब उसकी माँ की मौत हो गई। बाद में उसके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली। नई माँ ने आते ही सुमति को सताना शुरू कर दिया। घर के सारे काम कराने के बावजूद उसे ठीक से खाना नहीं देती। खाना माँगने पर वह मारती भी थी।
एक दिन बाद सुमति अपने पिताजी के साथ जंगल लकड़ी बीनने गई। वहाँ पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, तुम यहीं ठहरो। मैं जरा तालाब से पानी पीकर आता हूँ।’’
दोपहर से शाम हो गई, पर पिताजी नहीं आए। तभी उसने देखा, कि एक कबूतर कुछ दूरी पर फड़फड़ा कर गिरा।
वह दौड़कर उसके नजदीक पहुँची। उसे तीर लगा हुआ था। वह सावधानीपूर्वक उसे निकालती है। तभी उस रियासत के राजा और दो सैनिकों ने आकर उसे घेर लिया।
राजा ने कहा, ‘‘कबूतर मेरा है, इसे मुझे दे दो।’’
सुमति बोली, ‘‘क्या यह इसलिए आपका है कि इसे आपने तीर मारा है ?’’
सुमति की बात सुनकर राजा दांग रह गए। राजा ने कहा, “लड़की, तुम्हें पता भी है, मैं इस राज्य का राजा हूँ।
सुमति ने कहा, “तो क्या आपको किसी को भी बेवजह मारने का हक़ है ? क्या बिगाड़ा था इस बेजुबान पंछी ने आपका या आपके राज्य का ?”
राजा सोच में पड़ गए। वे सुमति की बातों से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने पूछा कि वह इस घने जंगल में अकेली क्या कर रही है ?
सुमति ने बताया कि वह अपने पिताजी का इंतजार कर रही है।
राजा ने उससे घर के सदस्यों के बारे में पूछा तो सुमति ने सब कुछ सच-सच बता दिया।
उन्हें वास्तविकता समझते देर नहीं लगी। फिर भी राजा ने अपने सैनिकों को उसके पिताजी को खोजने के लिए भेजा।
अंधेरा घिर आया पर जब वह नहीं मिला तो सुमति के बताए अनुसार राजा और उसके सैनिक उसके घर गए। सैनिकों को देखकर देखकर दोनों डर गए। वे राजा के पैरों में गिरकर माफी माँगने लगे।
राजा के सुमति गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘महाराज, मेरे माता-पिता को माफ कर दीजिए। उन्हें मत पकड़िए ! मैं अनाथ हो जाऊँगी।’’
राजा सोच में पड़ गए। बोले, ‘‘सैनिकों, इन्हें छोड़ दो और सुमति, आज से तुम यहाँ नहीं, मेरे राजमहल में रहोगी। वहाँ तुम्हारे ही उम्र की हमारी इकलौती बेटी है, उसकी कोई सखी-सहेली नहीं हैं। तुम उसके साथ रहोगी हमारी दूसरी बेटी बनकर।’’
अब सुमति राजमहल में सुख से रहने लगी।
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नरक बना स्वर्ग
एक गाँव था- रामपुर। वहाँ रहता था- रामनाथ। रामनाथ बहुत ही मेहनती और ईमानदार किसान था। वह काम को भगवान की पूजा मानने वाला था। गाँव के सब लोग उसका आदर करते थे।
रामनाथ का एक ही बेटा था- दीनानाथ। वह एकदम मूरख तथा निकम्मा था। दिनभर आवारा लड़कों की तरह इधर-उधर धूमता रहता। कभी कोई काम करता भी तो उसे बिगाड़कर रख देता।
एक दिन रामनाथ ने अपने बेटे को पास बुलाकर कहा, ‘‘बेटा दीनानाथ, अब तुम बड़े हो गए हो, यूं निकम्मों की तरह इधर-उधर भटकते रहना तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम्हें तो अब मेरे काम में हाथ बँटाना चाहिए।’’
पिताजी ने इतने स्नेह से समझाया कि बेटे को तुरंत अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने उत्साह से कहा, ‘‘आप ठीक कहते हैं बाबूजी। अब से मैं घर के सारे काम कर दिया करूँगा। आप मुझे सिर्फ काम बता दीजिए।’’
दीनानाथ का उत्साह देखकर उसके पिताजी बहुत खुश हुए। उन्होंने काम बताया, ‘‘बेटा, खेत में आलू की फसल पक गई है। तुम खेत जाकर उसे खोद लो।’’
दीनानाथ बोला, ‘‘बाबूजी ये आलू क्या होता है और मैं उसे कैसे खोदूँ ? मैं तो जानता भी नहीं।’’
“तुम फावड़ा लेकर जाओ और खेत में खोदना शुरू कर दो। जमीन से जो कुछ गोल-गोल चीज निकले, तुम उसे खेत के किनारे साफ जगह फैला दो, ताकि वह सूख जाए।’’ दीनानाथ ने उसे काम बताया।
पिताजी के बताए अनुसार दीनानाथ खेत में जाकर फावड़ा चलाना शुरू कर दिया। वह बड़ी लगन से खुदायी कर रहा था।
पहले तो कुछ आलू निकले फिर उसका फावड़ा किसी ठोस चीज से टकराया। दीनानाथ ने उसे निकालकर देखा। वह एक घड़ा था। जो गोल-गोल सोने के सिक्कों से भरा था।
दीनानाथ ने उन सिक्कों को भी गोल आलू समझकर उठाया ओर ले जाकर खेत के किनारे एक साफ जगह सूखने के लिए फैला दिया। उसे क्या पता कि ये कितने मूल्यवान हैं। वह पुनः काम में लग गया। पर यह क्या उसने ज्यों ही फावड़ा चलाया धुएँ के बीच अट्टाहास करता हुआ एक दानव आकृति प्रकट हुआ। दीनानाथ पहले तो डर गया फिर हिम्मत करके पूछा, ‘‘आप कौन हैं श्रीमान ?’’
वह दानव गंभीर होकर बोला, ‘‘मैं यक्ष हूँ। इस खजाने की रक्षा करने वाला। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। सचमुच तुम बड़े ही निर्लोमी हो। मुझे तुम्हारे जैसे की एक इमानदार आदमी की जरूरत थी।’’
यक्ष की बात दीनानाथ की समझ में नहीं आई। उसने कहा, ‘‘महाराज मैं आपकी बात नहीं समझ पा रहा हूँ। आपको भला मेरी क्या जरूरत हो सकती है ?’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी सहायता करोगे ?’’
दीनानाथ ने डरते हुए हामी भर दी और इसके साथ ही जोर का धुआँ उठा और दोनों एक दूसरे प्रदेश में पहुँच गए। यह एक सूखाग्रस्त प्रदेश था।
दीनानाथ चारों ओर आवाक होकर देखने लगा। दुबले-पतले नंग-धडंग बच्चे खेल रहे थे। स्त्रियाँ दूर नदी से पानी ला रही थीं। उनके तन पर पूरे कपड़े भी न थे। पुरूष लंगोटी पहने हुए थे। हरियाली का नामोनिशान तक न था।
दीनानाथ ने यक्ष से पूछा, “महाराज, क्या इनके पास पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े नहीं ? क्या इनके पास पर्याप्त भोजन नहीं ? क्या ये बहुत ही गरीब लोग हैं ?’’
दीनानाथ की व्याकुलता देख यक्ष मन नही मन खुशी से झूम उठा। उसने कहा, “हाँ बेटा, लेकिन अगर तुम चाहो, तो इस नरक को स्वर्ग बना सकते हो और तुम्हारे इस कार्य में ये लोग भी तुम्हारी हर-सम्भव सहायता करेंगे।’’
दीनानाथ आश्चर्य से यक्ष का मुँह ताकता रहा। फिर बोला, ‘‘महाराज आपकी बातें मेरी समझ से परे हैं। मैं भला इनकी क्या सहायता कर सकता हूँ ?’’
‘‘तुम बहुत कुछ कर सकते हो दीनानाथ। तुम्हारे खेत में जो खजाना मिला है जिसे तुमने गोल-गोल आलू समझकर खेत के किनारे सूखने के लिए फैला रखा है, वह आलू नही सोने की मुहरे हैं। उन्हें बेचकर तुम इनकी गरीबी दूर कर सकते हो। ये कुएँ और तालाब जो सूखे पड़े हैं, उनकी खुदाई करा सकते हो। इन कटे वृक्षों की जगह नए वृक्ष लगा कर इसे स्वर्ग बना सकते हो।’’
अब बात दीनानाथ की समझ में आ गई। उसने यक्ष की बातों पर अमल कर उस नरक को स्वर्ग में बदल दिया।
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कथनी और करनी का असर
अजय और संजय दोनों भाई न केवल पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में ही आगे रहते बल्कि बहुत निडर, साहसी तथा परिश्रमी भी थे। उनके पिताजी एक शासकीय चिकित्सक थे। पिछले दिनों उनका स्थानांतरण शहर से रामपुर गाँव में हो गया था। यह गाँव शहर से बहुत दूर था, इस कारण उनको सपरिवार उस गाँव में ही रहना पड़ा। वहाँ उनको प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के पास ही बना शासकीय मकान रहने को मिल गया।
उनके पिताजी सुबह से लेकर देर रात तक मरीजों से घिरे रहते। मम्मी घर के कामों में व्यस्त रहतीं। समय मिलता तो वे दोनों भाईयों को कुछ देर तक पढ़ातीं। जब वे लोग शहर में थे, तो अजय और संजय का अधिकांश समय स्कूल और टयूशन में ही कट जाता, परंतु यहाँ तो स्कूल के बाद समय कटता ही नहीं था।
एक दिन दोनों भाईयों ने आपस में कुछ विचार-विमर्श किया और चल पड़े अस्पताल अपने पिताजी के पास। संयोगवश उस समय वे अकेले और खाली बैठे थे। दोनों भाईयों को एक साथ देखकर पूछ बैठे- ‘‘क्या बात है बेटे ? सब खैरियत तो है।’’
‘‘पापा सब ठीक है, परंतु यहाँ गाँव में हमारा समय ही नहीं कट रहा है, इसलिए हम आपके काम में कुछ हाथ बँटाना चाहते हैं। हमारे लायक कोई काम हो तो प्लीज बताइए ?’’ अजय ने कहा।
उनके पिताजी दोनों भाईयों को बड़े ध्यान से देखने लगे। बोले- “हां काम तो है … ”
‘‘सच पापा ! जल्दी बताइए प्लीज।’’ दोनों बच्चे एक साथ बोल पड़े।
पिताजी बोले- ‘‘है, पर…. बहुत कठिन काम है। शायद तुम लोग….।’’ वे कुछ कहते इससे पहले संजय बोल पड़ा- ‘‘आप बताइए तो सही पापा। हम कोई भी काम कर लेंगे।’’
पिताजी ने समझाया- ‘‘देखो बेटे ! यह एक पिछड़ा हुआ गाँव है। यहाँ के ज्यादातर लोग गरीब और अनपढ़ हैं। वे साफ-सफाई तथा उत्तम स्वास्थ्य के सम्बंध में कुछ भी नहीं जानते। ये अंधविश्वासों, कुरीतियों तथा गलत परम्पराओं का पालन अभी भी करते चले जा रहे है। इसलिए तुम लोग इन्हें शिक्षित करने का काम कर सकते हो। इन्हें तुम पढ़ा सकते हो। पढ़-लिखकर ये लोग खुद ही इन बुराइयों को छोड़ देंगे और इनकी आधी समस्याएँ यूँ ही खत्म हो जाएँगी।’’
‘‘हाँ पापाजी ! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हम लोग इन्हें पढ़ाएँगे।’’ दोनों भाई एक साथ बोले। तभी कुछ लोग एक बीमार औरत को लेकर आ गए, तो बच्चों ने भी पिताजी से विदा लेकर घर की ओर प्रस्थान किया।
अब दोनों भाईयों ने आसपास के लोगों से कहा कि वे शाम को उनके यहाँ पढ़ने के लिए आया करें। वे ग्रामीण “हाँ” तो कहते पर कोई भी नहीं आता। अब दोनों भाईयों ने गाँव वालों को स्वच्छता के बारे में बताना शुरु किया। ग्रामीण उनकी बातों को सुनते जरूर, पर पालन नहीं करते। वे लोग यहाँ-वहाँ कहीं भी गंदगी कर देते। नालियों तथा गड्ढों में हमेशा मक्खियाँ भिनभिनातीं रहतीं।
अब दोनों भाईयों ने फिर से आपस में कुछ विचार-विमर्श किया और एक टोकरी तथा फावड़ा-गैंती लेकर निकल पड़े गाँव सफाई करने लगे। सुबह-सुबह वे दोनों गाँव के एक कोने से कचरे का ढेर हटाने तथा गड्ढों को पाटने के काम में लग गए। आते-जाते लोग उन्हें देखते, कुछ लोग हँस देते तो कुछ व्यंग्य में कुछ कह कर आगे बढ़ जाते। दोनों भाई निर्विकार भाव से अपने काम में जुटे रहे।
अभी कुछ ही देर हुआ था कि उन्हें काम करते देख गाँव की दो-तीन औरतें भी आकर उनके काम में लग गयीं। फिर क्या था…. एक-एक औरतें आती गईं और घंटे भर के भीतर ही पच्चीस-तीस औरतें इस काम में लग गईं।
औरतों को काम करते देख उनके घरवाले भी अपने को कहाँ रोक पाते। देखते-ही-देखते गाँव भर के स्त्री-पुरुष इस सफाई अभियान में लग गए और कुछ ही घंटों में पूरे गाँव की सफाई हो गई।
इस प्रकार संजय और अजय ने अपनी करनी से वह काम कर दिखाया जो वे कथनी से नहीं कर सके थे।
अब प्रतिदिन शाम को दोनों भाई गाँव के चौपाल में अशिक्षित लोगों को एक-एक घंटा पढ़ाते भी हैं। इस कार्य में गाँव के पंच, सरपंच और गुरुजी भी उनका सहयोग कर रहे हैं।
उम्मीद है बहुत जल्दी रामपुर पूर्ण साक्षर गाँव बन जाएगा।
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साहसी बच्चों की कहानी
अजय और संजय दोनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे। अजय 10 वीं और संजय 8 वीं कक्षा में थे। दोनों भाई न केवल पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में ही आगे रहते थे, बल्कि निडर और साहसी भी थे।
उनके पिताजी एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम करते थे। उन्हें अपने काम के सिलसिले में अक्सर शहर से बाहर जाना पड़ता था।
एक दिन की बात है। अजय और संजय रोज की तरह स्कूल गए हुए थे। उनकी माँ घर में अकेली थी। तभी डोरबेल बजी। ‘पोस्टमैन’ बाहर से बाहर से आवाज आयी।
‘‘आती हूँ, जरा रूको।’’ माँ ने कहा और दरवाजा खोल दिया।
दरवाजा खोलते ही दो हट्टे-कट्टे युवक जबरन घर के भीतर घुस आए और उन्होंने दरवाजा अंदर से बंद कर दिया।
माँ कुछ समझ पातीं, इससे पहले एक युवक ने लपक कर उनका मुँह बंद कर दिया और कहा- ‘‘खबरदार, मुँह से एक भी शब्द निकला तो बंदुक की छहों गोली तुम्हारे सिर में होंगी।’’
एक चोर ने अजय की माँ को कुर्सी से बाँध दिया और उनसे घर के कीमती सामान और रुपयों के बारे में पूछने लगा। दूसरा चोर घर के कीमती सामानों को इकट्ठा करने लगा।
अभी यह सब चल रहा था कि डोरबेल बजी। चोर चौंक पड़े और सोचने लगे कि दरवाजा खोलें या नही। इधर अजय और संजय को दरवाजा खुलने में देरी होने से आश्चर्य हुआ।
अजय ने की-होल से अंदर झाँका तो चौंक पड़ा। अंदर माँ को कुर्सी से बंधा देख वह समझ गया कि जरूर कुछ गड़बड़ है। अजय का दिमाग तेजी से काम करने लगा। उसने संजय से कहा कि वह छिपकर चोरों पर निगरानी रखे। उसने स्वयं बिना देर किए पास के टेलीफोन बूथ से पोलिस स्टेशन को सूचित कर दिया।
दिनदहाड़े चोरी की बात सुनकर पुलिस वाले भी तुरंत बताए हुए पते पर पहुँच गए। तब तक अजय घर के पिछवाड़े का दरवाजा बाहर से बंद कर चुका था।
अब घर से बाहर निकलने का एक ही दरवाजा था। पुलिस वाले दरवाजे की दोनों ओर चुपचाप खड़े होकर चोरों के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगे।
उधर दोनों चोर सारे कीमती सामान और नगदी दो अटैचियों में बंद कर जाने के लिए जैसे ही दरवाजे से बाहर निकले पुलिस वालों ने उन्हें आसानी से पकड़ लिया।
सभी ने अजय और संजय की खूब प्रशंसा की, जिनकी सूझबूझ और हिम्मत से दोनों चोर रंगे हाथों पकड़े गए।
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सितारा
‘‘नानी-नानी, आसमान में सितारे कैसे चमकते हैं ?’’ गोलू ने बड़ी मासूमीयत से पूछा।
कुछ सोचकर नानी बोलीं- ‘‘बेटा जो आदमी जितना अच्छा और नेक काम करता है, वह सितारा बनकर आसमान में उतना ही ज्यादा चमकता है।’’
‘‘क्या मैं भी सितारा बन सकता हूँ।’’ गोलू ने पूछा।
नानी बोलीं- ‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, बिल्कुल बन सकते हो।’’
अब गोलू को सितारा बनने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि उसने निष्चय कर लिया है कि उसे सितारा बनना ही है।
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सुरक्षित भविष्य
जामगाँव में एक व्यापारी रहता था। नाम था उसका- रामधन। उसके दो बेटे थे- रमाकांत और उमाकांत। दोनों भाई अपने पिता की तरह बहुत मेहनती, ईमानदार, मृदुभाषाी तथा काम को भगवान की पूजा मानने वाले थे।
रामधन ने अपने जीते-जी अपनी सारी सम्पत्ति का बँटवारा कर दिया था, ताकि उनके बाद भाइयों में सम्पत्ति को लेकर लड़ाई-झगड़े न हो तथा उनमें प्रेमभाव बना रहे। बँटवारा में रमाकांत को किराने की दुकान तथा उमाकांत को कपड़े की दुकान मिली। दोनांे की दुकानें अच्छी चल रही थीं तथा वे अपने-अपने परिवार के साथ आनंदपूर्वक जीवन बिता रहे थे।
रमाकांत ने अपने किराने की दुकान का बीमा करवा लिया था तथा नियमित रूप से उसकी किश्तें भी अदा करता था। इसके अलावा वह प्रतिमाह कुछ पैसे बैंक में भी जमा करता था, ताकि आड़े वक्त में काम आए। रमाकांत अपने भाई उमाकांत से भी बार-बार कहता कि वह भी अपने कपड़े की दुकान का बीमा करवा ले तथा कुछ रुपये बैंक में भी जमा करता रहे ताकि मुसीबत में काम आए।
उमाकांत हर बार उसकी बात टाल देता। वह कहता- “अरे भैया, बैंक और बीमा में रखा ही क्या हैं ? जितना पैसा आप इन पर खर्च करते हैं यदि उतना व्यापार में लगा दें, तो आमदनी दुगुनी बढ़ जाएगी। वह बैंक और बीमा को फालतू समझता था।
एक दिन अचानक न जाने कैसे उनके मुहल्ले में आग लग गयी। कई घर जल गए। रमाकांत और उमाकांत के दुकान भी जल कर खाक हो गए। दुकान में रखे सामान और नगदी भी जल गए। उन्होंने बहुत से लोगों को उधार दे रखा था और उनके नाम एक बही में लिख रखे थे। वह वही भी इस आग जनी में जल कर राख हो चुका था। अपने-अपने दुकान की हालत देखकर दोनों भाई बहुत रोए। पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों ने उन्हें धीरज बंधाया और फिर से दुकान जमाने की सलाह दी।
बीमा कंपनी से मिले रुपये तथा बैंक में जमा किये हुए रुपयों से रमाकांत ने बहुत कम समय में ही अपना दुकान फिर से जमा लिया परंतु उमाकांत के पास तो फूटी-कौड़ी तक नहीं बची थी, क्योंकि उसने न तो बीमा कराया था और न ही बैंक में रुपये जमा किए थे।
तभी उसे उन ग्राहकों को ध्यान आया उसने कुछ लोगो को उधार दे रखे थे। क्यों न उन पैसों से पुनः दुकान खोला जाये. वह उनके पास गया और पूरी बात बताते हुए उनसे पैसे माँगे।
उन्होंने उमाकांत से हिसाब पूछा तो उसने कहा- ‘‘हिसाब वाला बही-खाता तो जल गया।’’
“फिर तो हम कुछ नहीं कर सकते।” उन्होंने एक ही उत्तर दिया- ‘‘बिना हिसाब देखे हम पैसे कैसे दे सकते हैं ?”
उमाकांत समझ गया कि इनकी नीयत बदल गई है। वह बहुत दुखी हुआ और भारी कदमों से अपने घर लौट आया। वह सोच रहा था कि काश ! उसने भी दुकान का बीमा करवाया होता या बैंक में कुछ रुपये जमा किये होते तो आज ये दिन देखने न पड़ते।
उसकी वर्तमान स्थिति को देखते हुए जान-पहचान के लोग भी उधार देने को तैयार न थे। ऐसे बुरे समय में उसके बड़े भाई ने कुछ रुपये दिए जिससे वह अपनी दुकान फिर से जमा सका।
अब उसने पहले तो दुकान का बीमा करवाया तथा अपने भैया को रुपये लौटाने के साथ-साथ कुछ पैसे बचाकर नियमित रूप से बैंक में जमा करने लगा।
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झूठी शान
बात बहुत पुरानी है। सुन्दर वन के एक पुराने बरगद पेड़ की खोह में कालू नामक एक उल्लू अपने परिवार के साथ रहता था। कालू का एक हंस मित्र था- हंसराज। वह हंसों का राजा था।
कालू अक्सर अपने मित्र हंसराज से मिलने जाता था। दोनों मित्र घंटों बैठकर बातें करते। कालू हंसराज के राजसी ठाठ-बाट देखकर मन में सोचता “काश ! उसके पास भी ये सब होते।”
वह प्रकट रूप में ऐसा कुछ भी बोलता नहीं था। कालू से हंसराज अधिकतर राजकाज की ही बातें किया करता था क्योंकि कालू ने उसे बताया था कि वह उल्लूओं का राजा है तथा सुन्दरवन में उसका एकछत्र राज है। उसकी अनुमति के बगैर सुन्दर वन में कुछ भी नहीं हो सकता।
एक दिन कालू हंसराज से बोला- ‘‘मित्र हंसराज, मैं आपसे मिलने तो कई बार आ चुका हूँ, परंतु आप कभी हमारे यहाँ नहीं आए। कभी पधारिए हमारे राज्य में।’’
कह तो दिया पर मन में सोचा कि यदि सचमुच कभी हंसराज उसके यहाँ आ जाएँ तो फिर वह मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा।
हँसराज बोला- ‘‘मित्र यदि ऐसा ही है तो चलो आज ही चलते हैं।’’
मन मार कर कालू ने हँसराज को साथ ले सुंदर वन की ओर प्रस्थान किया।
अभी वे बरगद के पेड़ के पास पहुँचने ही वाले थे कि बरगद पेड़ के नीचे डेरा डाले सैनिकों को देखकर चौंक पड़े। कालू तो गुस्से से तमतमा गया।
हँसराज से बोला- ‘‘इनकी ये हिम्मत ! मुझसे पूछे बगैर इन्होंने यहाँ आने की जुर्रत कैसे की ? अभी देखता हूँ।’’ यह कह कर वह चिल्लाने लगा।
उसकी आवाज सुन कर उल्लू का बेटा खोह से बाहर निकल आया। वह भी अपने पिता को बुलाने लगा। उल्लूओं की तेज आवाज सुन कर एक सैनिक सेनापति से बोला- ‘‘सेनापति जी ! उल्लू की आवाज सुनना बहुत अशुभ माना जाता है।’’
सेनापति बोला- ‘‘उल्लू, कहाँ है ? पता करो और देखते ही गोली मार दो।’’
आवाज उसी पेड़ से आ रही थी।
सैनिकों ने कालू के बेटे को खोजकर गोली मार दी।
झूठी शान और दिखावे के चक्कर में कालू को अपने इकलौते पुत्र से हाथ धोना पड़ा। पोल खुली सो अलग।
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शरारत
किसी गाँव में एक बहुत ही प्यारा-सा लड़का रहता था। नाम था उसका- अजय। यथा नाम तथा गुण। उसे जीतना उसके साथियों के वश की बात नहीं थी। चाहे वह खेल का मैदान हो, या पढ़ाई का क्षेत्र। न केवल पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में, बल्कि षरारत करने में भी वह नम्बर वन था।
उसकी शरारतों में मुख्य रूप से किसी कुत्ते को ढेला मारना, किसी बैल, भैंस या घोडे़ पर चढ़ जाना, किसी लड़की की चोटी को खींच देना या किसी अनजान पथिक को गलत रास्ता बताना शामिल थे। इससे न केवल उसके माता-पिता और मित्र ही बल्कि शिक्षकगण भी परेशान थे। वे उसे बार-बार समझाते, पर अजय उनकी बातों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता था।
एक दिन अजय स्कूल से लौट रहा था। उसने देखा कि सड़क के किनारे कुत्ते का एक नन्हा-सा पिल्ला चुपचाप बैठा कूँ-कूँ कर रहा है। वह इतना प्यारा था कि उसे गोद में उठाने का दिल करता था।
एक समय था जब अजय कुत्ते-बिल्लियों को छूने से भी डरता था, पर अब उसकी झिझक खुल गई थी।
पिल्ले को देखकर उसे शरारत सूझी। वह चुपके से पिल्ले के पीछे चला गया और उसको पूँछ से पकड़ कर उठा लिया। हवा में लटका पिल्ला अपने को छुडाने के लिए हाथ-पाँव मारने लगा पर सफल नहीं हुआ। अजय उसे घड़ी के पेंडुलम की तरह हिलाने लगा, फिर हवा में ऊपर उछाल दिया। जमीन पर गिरते ही पिल्ला कूँ-कूँ करने लगा।
अजय को इसमें बड़ा मजा आया। वह ताली बजा-बजा कर हँसने लगा, तभी कोई पीछे से आकर उसके कान को पकड़ कर जोर से खींचने लगा। मुड़कर देखा तो उसके होश उड़ गए। कान खींचने वाला कोई और नहीं उसके क्लास टीचर थे। वे अजय की कारस्ताऩी बड़ी देर से देख रहे थे। अजय दर्द से बिलबिलाता हुआ बोला- ‘‘सर जी, प्लीज, मेरे कान छोड़ दीजिए।’’
‘‘क्यों ?’’ सर ने कड़क कर पूछा।
‘‘सर जी, बहुत दर्द हो रहा है। प्लीज छोड़ दीजिए ना, वरना कान उखड़ जाएगा।’’ अजय गिड़गिड़ाया।
‘‘नहीं उखडेगा। अभी तो तुम्हारे कान पकड़ कर, उठा कर हवा में उसी प्रकार उछालना है, जिस प्रकार तुमने उस कुत्ते को उछाला था।’’ सर ने कहा।
‘‘सारी सर ! मुझसे आईन्दा ऐसी गलती नहीं होगी। मैं कसम खाता हूँ कि आज से, बल्कि अभी से किसी भी जीव-जंतु को परेशान नहीं करूँगा।’’ अजय ने कहा।
‘‘ठीक है, आज तो छोड़ देता हूँ, पर भविष्य में यदि तुम्हारी कोई भी शिकायत मिली, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। बेटा, हमेशा याद रखना, दर्द सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि सभी जीव-जंतुओं तथा पेड-पौधों को भी होता है। इसलिए हमें उनसे अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।’’ सर ने समझाया।
‘‘यस सर ! मैं आपकी बातें हमेशा याद रखूँगा, और उस पर अमल भी करूँगा।’’ अजय ने कहा।
सचमुच, अब अजय पूरी तरह से बदल गया है।
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अंधविश्वास
बात उन दिनों की है जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था। हमारे परिवार में सिर्फ चार प्राणी रहते थे। मम्मी-पापा, मैं और दादी माँ। मम्मी-पापा मुझसे बहुत प्यार करते थे और मैं भी उन्हें बहुत प्यार करता था, पर दादी माँ को मैं सबसे ज्यादा प्यार करता था और वे भी मुझे उतना ही चाहती थी। स्कूल समय के अलावा मेरा अधिकांश समय उन्हीं के साथ बीतता था।
वे ही मुझे खिलातीं, नहलातीं, होमवर्क करातीं और स्कूल के लिए तैयार करती थीं। घर से स्कूल की दूरी महज आधा किलोमीटर होने के बावजूद दादी माँ उंगली पकड़कर मुझे रोज स्कूल छोड़ने और लेने जाती थीं। रात को भी मैं उन्हीं के साथ सोता और रोज नई-नई कहानियाँ सुना करता।
दादी माँ को ज्योतिषियों पर बहुत विश्वास था और उनकी बातों को वे ब्रह्म वाक्य की तरह मानती थीं। एक बार एक ज्योतिष दोपहर के समय हमारे घर आए। दादी माँ ने उनका आदरपूर्वक स्वागत-सत्कार किया और मुझे गोद में लेकर उन्हें अपना हाथ दिखाते हुए पूछा- ‘‘महाराज कुछ भविष्य की बातें बताने का कष्ट करें।’’
ज्योतिष बहुत देर तक दादी माँ का हाथ पढ़ता रहा पर बोला कुछ नहीं। शायद कुछ सोच रहा था।
दादी माँ ने उसकी गंभीरता का कारण पूछा तो उसने बताया- ‘‘माताजी, बात ही कुछ ऐसी है। आज तक मेरी ज्योतिष विद्या कभी असत्य प्रमाणित नहीं हुई है, इसलिए सत्य बताने से डरता हूँ।’’
दादी माँ किसी आशंका से एकदम डर गईं। हाथ जोड़कर बोली- ‘‘महाराज ! जल्दी बताइए, मेरा दिल बैठा जा रहा है।’’
‘‘आपके हाथ की रेखाएँ बता रही हैं कि तीन दिन के भीतर आपको पुत्र शोक होगा। एक दुर्घटना में आपका बेटा आपसे हमेशा के लिए बिछड़ जाएगा।’’ ज्योतिष की बात सुनकर दादी माँ एकदम परेशान हो गयीं। मम्मी ने तो रोना ही शुरु कर दिया।
दादी माँ मुझे गोद में उतारकर ज्योतिष के पाँवों में गिर कर लगभग रोते हुए बोलीं- ‘‘महाराज, इससे बचने का कोई तो उपाय होगा। अब आप ही का सहारा है। मेरे बेटे को किसी भी तरह से बचा लीजिए महाराज।’’
‘‘धीरज रखिए माताजी, धीरज रखिए। अब मैं आ गया हूँ न। आपके बेटे को कुछ नहीं होगा। आप निश्चिन्त रहिए। आपको बस एक छोटा-सा शांति पाठ करना होगा। आप तो जितनी जल्दी हो सके आवश्यक सामग्रियों की व्यवस्था कीजिए।
दादी माँ कुछ पूछतीं इससे पहले एक कड़कदार आवाज गूंजी -‘‘रूक जाओे माँ।’’ आवाज पिताजी की थी जो पुलिस विभाग में इंसपेक्टर थे और आज अचानक समय से पहले घर आ गए थे।
पिता जी ने ज्योतिष से पूछा- ‘‘तो आप भविष्यवक्ता हैं ?’’
ज्योतिष बोला- ‘‘जी हाँ।’’
पिता जी ने फिर पूछा- ‘‘अच्छा तो आप मुझे ये बताइए कि अब मैं आपको जूते से मारूँगा कि डंडे से ?’’
ज्योतिष सकपकाया, बोला- ‘‘जी….जी….आप मुझे क्यों मारेंगे….? मैंने क्या अपराध क्या है ?’’
पिता जी ने उसे दो डंडे लगाने के बाद कहा- ‘‘तुमने इन भोले-भाले लोगों को झूठमूठ की बातों से भयभीत कर ठगने का अपराध किया है। इस जुर्म में तुम्हें जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।’
जेल का नाम सुनते ही ज्योतिष की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वह अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर भाग खड़ा हुआ।
पिता जी बहुत देर तक मम्मी तथा दादी माँ को समझाते रहे कि ऐसे लोग ठग होते हैं, जो भोले-भाले लोगों को झूठमूठ की बातों से भयभीत कर देते हैं और पूजा-पाठ के नाम पर ठगते हैं। ऐसे लोगों के झाँसे में नहीं पड़ना चाहिए।
पर दादी माँ कहाँ मानने वाली थी। अड़ गईं कि ‘‘तुम तीन दिनों की छुट्टी ले लो और घर में रहो।’’
पिता जी ने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा और जो होना है वह घर-बाहर कहीं भी हो सकता है। पर दादी माँ तो दादी माँ थीं-पिताजी की मम्मी। वह भला कहाँ मानने वाली थीं। नहीं मानीं। हारकर पिताजी को तीन दिनो की छुट्टी लेनी पड़ी। लेकिन तीन दिन बीतने पर भी जब कुछ नहीं हुआ तो दादी माँ को अपनी गलती का अहसास हुआ। बोली- ‘‘बेटा, मुझे माफ कर देना। मेरे अंधविश्वास के चलते तुम्हें परेशान होना पड़ा। पर क्या करूँ, माँ हूँ न। लेकिन अब जान गई हूँ कि ये सब बेकार की बातें हैं।‘‘
और सचमुच दादी माँ जब तक जीवित रहीं, उन्हें कभी किसी ज्योतिष से बातें करते नहीं देखा।
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मेहनती मोहन
शहर के पास ही एक गाँव था- जामगाँव। इसी गाँव में मोहन नाम का एक गरीब लेकिन मेहनती और ईमानदार लड़का अपनी दादी माँ के साथ रहता था।
दादी माँ बताती हैं कि जब वह मात्र डेढ़ वर्ष था तभी उसके माता-पिता की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। उसके माता-पिता मोहन को खूब पढ़ा-लिखाकर एक बड़ा आदमी बनाना चाहते थे, इसलिए उनकी मौत के बाद दादी माँ ने सिलाई-कढ़ाई तथा दूसरों के घर झाडू-पोंछाकर मोहन को पढ़ाना षुरू किया।
मोहन को बड़ा करने तथा पढ़ाने के लिए दादी माँ ने रात-दिन एक कर दिया ताकि उसकी परवरिश में कोई कमी न रह जाए। उसकी मेहनत बेकार नहीं गई। मोहन पढ़ने-लिखने में बहुत तेज निकला। वह हर कक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होता गया।
राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में चयनित होने तथा हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम आने से उसे मेधावी छात्रों को मिलने वाली छात्रवृति और प्रोत्साहन राशि भी मिलने लगी।
मोहन जब थोड़ा-सा बड़ा हुआ तो उसने दादी माँ का दूसरों के घर काम करना बंद करवा दिया। बोला- ‘‘दादी माँ, अब मैं काम करूँगा और आप आराम करेंगी। आपको दूसरों के घर काम करते देख, मुझे अच्छा नहीं लगता।’’
दादी माँ उसे बड़े ही प्यार से समझाते हुए बोली- ‘‘बेटा मोहन, अभी तुम बहुत छोटे हो। अभी तो तुम्हें खूब पढ़ना है, बड़ा आदमी बनकर अपने माता-पिता और मेरे सपनों को साकार करना है। जब तुम बड़े आदमी बन जाओगे, तब मैं ये सारे काम बंद कर के खूब आराम करूँगी।’’
मोहन भी कम जिद्दी नहीं था। वह अड़ गया। बोला- ‘‘खाक छोटा हूँ। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता हूँ। अब मैं छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करूँगा और खुद भी पढूँगा, पर आपको दूसरों के घर काम करने नहीं दूँगा।’’
दादी माँ की आँखों में आँसू आ गए। उसे अपने बेटे (मोहन के पिता) की याद आ गई। वह भी ऐसा ही जिद्दी था। जो भी कहता, वह करके ही रहता। मोहन की जिद के आगे अंततः दादी माँ को झुकना ही पड़ा।
अब मोहन खुद पढ़ने के साथ-साथ आसपास के छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा।
छात्रवृति तथा ट्यूशन से मिलने वाले पैसों से दादी और पोता दोनों का घर व पढ़ाई का खर्चा निकल जाता और उसकी पढ़ाई भी प्रभावित नहीं होती थी।
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जैसे को तैसा
रामपुर में एक बहुत ही मेहनती तथा बुद्धिमान कुम्हार रहता था। नाम था उसका- दीनबंधु।
एक बार दीनबंधु अपने बेटे की शादी में गाँव के महाजन से उसकी घोड़ी किराए पर लाया। दुर्भाग्य से वह घोड़ी महाजन को लौटाने से पहले ही मर गई।
दीनबंधु चिंतित हो गया। महाजन बहुत ढीठ था। उसकी नजर दीनबंधु के उपजाऊ खेतों पर थी। कई बार उसने दीनबंधु से मुँहमाँगी कीमत पर खरीदने की बात की थी, पर दीनबंधु उसे बेचना नहीं चाहता था। घोड़ी के मरते ही महाजन को लगा कि अब जल्दी ही उसकी इच्छा पूरी होकर रहेगी।
महाजन दीनबंधु से बोला- ‘‘मुझे वही घोड़ी चाहिए और वह भी जिंदा।’’
दीनबंधु ने कहा- ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है महाजन जी ! मरी हुई घोड़ी जिंदा कैसे हो सकती है ? उसके बदले आप घोड़ी की कीमत ले लीजिए।’’
लेकिन लालची महाजन कहाँ मानने वाला था, उसने कहा कि उसे वही घोड़ी चाहिए। सीधी उंगली से घी निकलते न देख कुम्हार ने सोचा टेढी उंगली से की काम चलाना पड़ेगा। कुछ सोचकर उसने कहा- ‘‘ठीक है महाजन जी, आप कल सुबह मेरे घर आइए। आपको अपनी घोड़ी मिल जाएगी।’’
महाजन ने कहा- “ठीक है, लेकिन यदि वही घोड़ी नहीं मिली तो मैं जो चाहूँगा, तुम्हें वही करना पड़ेगा।’’
कुम्हार बोला-‘‘मुझे आपकी शर्त स्वीकार है।’’
महाजन का मन खुशी से झूम उठा। वह बड़ी बेसब्री से अगली सुबह का इंतजार करने लगा। रात को वह ठीक से सो भी न सका।
तड़के सुबह वह कुम्हार के घर पहुँचकर ‘दीनबंधु’, ‘दीनबंधु’ चिल्लाने लगा, पर दरवाजा किसी ने नहीं खोला।
वह गुस्से से जोर-जोर से चिल्लाने लगा। फिर भी दरवाजा नहीं खुला तो उसने जोर से धक्का दे दिया । दरवाजा तो खुल गया पर उससे लगे अनेक मिट्टी के बर्तन टूटकर चकनाचूर हो गए।
दीनबंधु तो जैसे इसी के इंतजार में था। वह जोर-जोर से रोने लगा। बोला ‘हाय मेेरे बर्तन’, ‘तोड़ डाला रे’, ‘तोड़ डाला रे’।
महाजन बोला-‘‘रोओ मत! ठसकी कीमत मुझसे ले लेना।’’
कुम्हार बोलाा-‘‘मुझे तो यही बर्तन चाहिए वह भी बिना टूटे हुए, जैसे पहले थे।’’
महाजन का मुँह लटक गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। उसने दीनबंधु से माफी माँगी।
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साधु की दो बातें
वेणुपुर नामक गाँव में दो भाई रहते थे। नाम था उनका- दुर्जन और सुजन। दुर्जन जितना दुष्ट था, सुजन उतना ही नेक और सीधा सादा, किंतु वह बहुत ही गरीब था। दुर्जन, सुजन की गरीबी पर खूब हँसता था। वह भले ही दूसरों को रुपया, पैसा आदि उधार में दे देता किंतु अपने छोटे भाई सुजन को फूटी-कौड़ी भी नहीं देता था।
एक दिन सुजन की पत्नी ने अपने पति से कहा- ‘‘क्यों जी हम कब तक इस गाँव में भूखों मरेंगे। यहाँ तो ठीक से मजदूरी भी नहीं मिलती।’’
‘‘तो तुम्हीं बताओ ना कि मै क्या करूँ।’’ – सुजन ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा।
‘‘क्यों न हम शहर चल देते। वहाँ कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा।’’ – पत्नी ने कहा।
सुजन शहर में कोई रोेजगार तलाशने का निश्चय कर अगले ही दिन पत्नी द्वारा बनाई रोटी और गुड़ की पोटली लेकर शहर की ओर निकल पड़ा।
अभी उसने जंगल में प्रवेश ही किया था कि उसे एक कुटिया दिखाई पड़ी। वहाँ एक वृद्ध साधु नीचे चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। सुजन को देखते ही साधु महाराज उठकर बैठ गए और कहने लगे- ‘‘सुजन बेटे, तुम कहाँ जा रहे हो ?’’
साधु के मुँह से अपना नाम सुनकर वह चौंका, पर समझ गया कि ये पहुँचे हुए साधु हैं। सुजन ने अपनी राम कहानी सुना दी।
साधु सुजन की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहने लगे- ‘‘बेटा सुजन, मैं पिछले तीन दिनों से कुछ भी नहीं खाया हूँ। यदि यदि तुम अपने हिस्से की एक-दो रोटी दे देते, तो मेरे भी प्राण बच जाते।’’
सुजन ने उसी क्षण पोटली से दो रोटी और थोड़ा-सा गुड़ निकालकर साधु के सामने रख दिया। साधु प्रसन्न होकर कहने लगे- ‘‘बेटा, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं हैं, किंतु मेरी दो बातों का सदा ख्याल रखना और जहाँ तक हो सके उनका पालन करना। भगवान तेरी अवश्य सुनेंगे। पहला- यथाशक्ति दुष्ट-जनों की भी सहायता करना और दूसरा- जो कुछ भी कमाओ उसमें से कुछ-ना-कुछ अवश्य दान करो।’’
सुजन ने दोनों बातें मन में गाँठ कर लीं और वह आगे बढ़ गया। अभी थोड़ी दूर ही चला था कि एक पेड़ के नीचे चार-पाँच लोग बैठे दिखाई पड़े। शायद वे डाकू थे। सभी के पास बन्दूकें तथा तलवारें थीं। उन्हें देख सुजन के प्राण सूख गए। वह थर-थर काँपने लगा। इस पर डाकुओं के सरदार ने कहा- ‘‘राहगीर डरो मत ! हम तुम्हें मारेंगे नहीं। किंतु एक शर्त पर।’’
सुजन ने हाथ जोड़ते हुए पूछा- ‘‘क्या’’ ?
सरदार ने उसे कुछ पैसे देकर कहा- ‘‘पास में ही बस्ती है। तुम वहाँ जाकर हमारे लिए कुछ खाने का सामान ला दो।’’
सुजन सोचने लगा- ‘यह तो पाप है। मैं डाकुओें की सहायता क्यों करूँ।’
तभी उसे साधु की पहली बात याद आ गयी और वह राजी होकर गाँव की ओर खाने का सामान लेने चल पड़ा।
थोडी देर बाद जब वह लौटा तो वे सब नदारद थे। वह वहीं बैठकर डाकुओं की प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसे पेड़ की डाल से बंधी एक पोटली दिखाई दी। वह पोटली उतार कर खोलने लगा। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयीं। पोटली में सोने-चाँदी के जेवरात थे। साथ में एक पत्र भी था। वह पढ़ने लगा- ‘‘सुजन, तुम्हारे आने से पहले हमें जरूरी काम से जाना पड़ रहा है। इसलिए पत्र लिख रहे हैं। तुम पोटली के जेवरात ले जाना। यह तुम्हारी मजदूरी है।’’
सुजन ने मन ही मन साधु महाराज को धन्यवाद दिया और घर की ओर लौट पड़ा। वह खुशी के मारे उड़ा जा रहा था।
अभी वह अपने गाँव पहुँचने ही वाला था कि एक भिखारी उससे पोटली माँगने लगा। उसे पहले तो लोभ के भूत ने धमकाया पर साधु महाराज की दूसरी बात याद आते ही सुजन ने पोटली से एक सोने का कंगन निकालकर भिखारी दे दिया। प्रसन्न होकर वह बोला- ‘‘जीते रहो बेटा, तुम्हारा धन रोज-रोज बढ़ता रहे।’’
घर पहुँचते ही उसने सारी बातें अपनी पत्नी को सुना दी। वह भी मन ही मन साधु महाराज को भगवान का अवतार मानकर प्रणाम करने लगी।
अब उसका धन सचमुच रोज-रोज बढ़ने लगा।
दुर्जन ने जब उसे अमीर होते देखा तो वह भी राज जानने के लिए अपनी पत्नी को सुजन के पास भेजा। सुजन ने अपनी भाभी को सब बातें सच-सच बता दीं।
सुजन भी दूसरे दिन साधु की तलाश में चल पड़ा। थोड़ी दूर चलते ही साधु महाराज भी मिल गए, किंतु दुर्जन से रोटी माँगने पर उसने रोटी नही दी और न ही उनकी बातें सुनी। वह तो शीघ्रातिशीघ्र डाकुओं के पास पहुँच कर इनाम लेना चाहता था।
थोड़ी ही देर में उसे वे डाकु भी मिल गए, किंतु जब वह खाने का सामान लेने नहीं गया और गाँव में उनका पता बता देने की धमकी देने लगा तो डाकुओं ने उसे खूब मारा।
अब दुर्जन के पास खाली हाथ लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था।
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डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर , छत्तीसगढ़
09827914888