मेरी ज़ा क्या से क्या निकली
नफ़रत भी हद से बढ़ गयी,
तेरे चहरे से जब मासूमियत निकली ,
थूक भी सकता नही तेरे चहरे पर ,
तू उस काबिल भी ना निकली ।
शिदत से चहा था जिसको ,
वो सावन के मौसम में पतझड़ निकली ,
सुबह शाम महेनत की जिसके लिये ,
वो हरामों से बनी दौलत निकली।
प्यार -बफा सब कुछ किया था जिनसे ,
वो अपनो के वेश में बेबफा वेशिया निकली ,
चोट दिल पे मारी जिसने खून के आँसू रुलाया जिसने ,
वो जलाद से भी बत्तर बदजात निकली।
अरमानों को सिलने के लिए सुई में पिरोया धागा था जो,
तू उस काफ़िर धागे की खुली गिठा निकली ।
मेरे जिस्म से निचोड़ी गयी खून की हर बून्द की दलाली खाने के बाद ,
मेरी रहू को बेचने वाली तू दायन नक़ली ।
चाहा था जिसे खुदा से भी बड़ कर ,
में खुद हेरा हू की वो कहानी
बेबफा नकली ।