मेरी सहचरी कलम
तू जब भी आती है ,
मेरे हाथों में ,
मेरी उँगलियों में ,
समां सी जाती है।
कभी जज़बातों की
नदी सी बन ,
उत्तर आती है ,
सफ़ेद,सादे कागज़ पर।
तो कभी आँखों से निकल कर ,
दर्द के लिबास में ,
आंसुओं के साथ बह जाती है , किसी झरने सी।
किसी पागल नदी सी तू ,
जो अपने उन्माद में ,
तोड़-फोड़ कर सब किनारे ,
अविरल सी बह जाना चाहती है।
मेरी पीड़ा , कुंठा, संताप ,
को लफ़्ज़ों का जामा पहनाकर ,
तू घुटन के हर पहाड़ को ,
तोड़ डालना चाहती है।
तू है बिलकुल आज़ाद ,
समय का तुझपर कोई बंधन नहीं।
ऐसा प्रयत्न भी वोह करने कि ,
सोच भी नहीं सकता।
समाज भी तुझपर पहरा नहीं लगा सकता ,
और ना कभी लगा पाया .
तू है निरंकुश ,
तू है स्पष्टवादी ,
सत्य हो जिसका अधिकार ,
उसे आगे बढ़ने से क्या रोक कभी,
पाया है कोई ?
सच बतायूं ! तेरे पहलु में
आकर मैं भूल जाती हूँ सब।
क्या लोक-व्यवहार ,
क्या दैनिक क्रिया-कलाप ,
और क्या रिश्ते -नाते ,
सब कुछ भूल जाती हूँ।
और हो भी क्यों ना ऐसा ,
मुझे तेरा मजबूत साथ जो मिला ऐसा,
तू आई मेरे जीवन में जबसे ,
मुझे ज़िंदगी जीने का कोई मकसद मिला।
तूने ही तो मुझे एक रचनाकार
बनने का सौभाग्य प्रदान किया।
तू है मेरी ख़ुशी ,
मेरा आनंद ,
मेरा गम भी ,
मेरा आत्म-विश्वास है तू ,
है तू मेरा स्वाभिमान भी ,
तू ही मेरी प्रेरणा।
मेरी ग़ज़ल,
मेरी कविता,
है मेरी आप बीती ,
मेरे ह्रदय में उठते संवेगों को
भवनाओं को,
मेरे ज़ेहन में हर घडी तूफ़ान
मचाने वाले विचारों को ,
कशमकश को सही दिशा देने वाली ,
मेरी प्रिये सहचरी है ,
तू मेरी कलम !