मेरी सम्पूर्ण
तुम्हारे पीछे की ओट से
तुम्हें मैं खुद में पाता हूं
समर्पण लिए सशरीर
एक बार समिलन को
नव्य सृजन सृष्टि को
लूं थाम, करूं प्रस्फुटन
जिसमें मैं तू को लूं पा
तुम्हारे आँखों के कजर
बन तुझमें ही लूं समा
तू ही दुनिया तू ही चाह
तू ही अश्रु मेरी परिपूर्ण
तेरे पैरों को स्पर्श मात्र से
तन झन झन कर झंकृत
सिसकियाँ की ध्वनि में
स्वयंपूर्ण दोपूर्ण सम्पूर्ण
जीवन संघर्षों तलक
हमसफ़र के पंथ पे मैं
द्वि बन इस भवनीर पार
जन्मचक्र के द्वि पहिए बन
तुम्हारे शहरों के नगरी के
हृदयों की कोमलता में
मैं तिनका की धूल बनूं
तेरे ममत्व लिए ख्वाब के
चाँदनी भी लगी शर्मानें
कहने लगी ये कैसी!
बिडंबना या ये कृपापात्र
तुम्हें देखना चाहूं तो
आईनों के प्रतिबिंब भी
मुझसे लगी वो छिपाने
मेरी ज्योत्स्ना – सी प्रिय
गहराईयों, कल्पनाओं को
करती मुझे सृष्टि साक्षात्
सान्ध्य हो या भोर नयन
प्रकाशपूंज या आलिंगन को।