मेरी संस्कृति
स्वर्ग लोक से अवतरित हुई थी तुम उस दिन,
काली रजनी के बेरी में बंध चुके थे अरुणबिन्द ।
था जीवन की धरती पर हाहाकार भरी हे! तृष्णा,
बिन बंशी के ही मनहर बन आई तु हे कृष्णा ।
था उस रात्रि का प्रखर – प्रगाढ़ – अविरल चरण,
छिन्न-भिन्न कर जन्म ली हे पुत्री तुम काल उसी क्षण ।
तेरे स्निग्ध चरण पड़ते ही नाच उठा धरणी गगन,
छलक उठा हर्षित सरस लिये चंचल नयन ।
कर्म पथ पर चल दिखा तु वह दिव्य प्रकाश,
बेटी कहने वाले जन का मिटा तू ही भरास ।
हृदय करेगा तब अखण्ड होकर अभियान,
मिलेगी जब धरा से संस्कृत माँ कहकर सम्मान ।
शिवकाली का हाथ सदा रहे बना आवरण,
कंटक पथ पर जहाँ – जहाँ पड़े तेरा चपल चरण ।
हे संस्कृति! रहती है तु नित मुझसे नाराज,
क्या कहूँ ? है परिस्थिति ही कुछ ऐसी आज ।
है जीवन कलुषित, कहूँ क्या? तेरे बिन ,
स्वर्ग लोक से अवतरित हुई थी तुम उस दिन ।
-उमा झा