मेरी विकलताएँ
ये पहाड़- सा बोझ लिए
जो मैं युगों से फिरता हूँ,
मैं चाहता हूँ कि गिर जाए…
और दब जाए मेरी विकलताएँ।
जिनमें से नयी कोपलें फूटे
उमंगों के आशाओं के,
और चिर काल तक
आच्छादित रहे मेरे स्वप्न।।
हाँ ऐसा ही हो !
पहाड़ो के नदी हो जाने तक,
और नदियों को पहाड़।।
-तेजस