मेरी लेखनी कहती मुझसे
मेरी लेखनी कहती है मुझसे,
शब्द लिखो फिर सूझबूझ से ,
लिखे शब्द में होती इतनी क्रांति,
छिन्न-भिन्न हो जाती दिशा भ्रांति ,
माना कि तु धनवान नहीं,
है पद की कोई पहचान नहीं,
तु समृद्ध पांत खड़ी विद्वान नहीं,
तु अदृश्य शक्ति सी भगवान नहीं,
पर, जिस भूमि पर जन्म तुने पाया,
है विकट, विक्राल विध्वंसक की काली छाया,
नर संहार कर रहे चुन चुन निर्दोष काया,
क्या उन प्रति चित तेरे, कोई कर्तव्य न आया?
आज विपदा देश को दे रही बड़ी चुनौती,
क्या उन प्रति तेरे मन सागर से उठी न युक्ति?
गिरने पड़ने वालों के हो रहे अस्तित्व गौण,
है यहाँ स्वांग रूपी शासक का दृष्टि ही मौन,
क्रंदन करती नीरस आज दिशा निराली,
सूखी रोटी भी नसीब कहां है उनकी थाली ,
क्या इन भूखे बेचारे प्रति तेरा कोई कर्तव्य नहीं?
क्या इन अश्रु सैलाब प्रति स्नेह मन्तव्य नहीं?
लिख जितना चाहे आज लिख उमा,
है तेरे उर सागर में जितना अनुराग जमा,
तु भी खड़ी है, उसी श्रमिक के पांत,
जिसे निगलने तड़प रहा अत्याचारी दांत,
श्रमिक वेदना तु कर इतना उजागर,
हो हलचल में शासन सर्प सा अजगर,
मत सोचो तु इस ज्वलंत क्रांति में है अकेली,
है लेखनी तेरी महायुद्ध में सारथी सम सहेली,
जब तक है मन भवर में लेखन की क्षमता,
तबतक वायु वेग सी मचलेगी मेरी चंचलता – – –
उमा झा