मेरी मां
मेरी ऊर्जा का स्त्रोत, मेरी शक्ति, प्रेरणा और मेरे स्वप्नों की पर्यवेक्षिका, मेरी मां…
जब भी कभी जीवन की वास्तविकताओं से सामना होने पर कुंठा एवम् त्रासदी का बोध गहराता चला जाता है, जब कभी मन भटकाव की सीढ़ियों पर चढ़ता है चला जाता है ,और जब कभी आत्म करूणा का आवेश खुद को अति दयनीय स्थिति में पाता है,तब सिर्फ एक व्यक्ति का स्मरण, उसका कर्तव्य बोध, उसके सपने मेरी आंखो के आगे तैर जाते हैं ,और शरीर में एक बिजली – सी कौंध उठती है।
मेरी मां कोई मोटिवेशनल स्पीकर नहीं है ,जो सुबह शाम मुझे अपने वक्तृत्वों से प्रेरित करती हो, वो कुछ नहीं कहती,कभी नहीं, चाहे आप खुद अपने करने योग्य कार्य को कर सकने की क्षमता होने पर भी निठल्ले बैठे रहो, या फिर झूठ- मूठ किताबों को हाथ में लेकर खुद को ही छलने का प्रपंच क्यों ना कर रहे हो, चाहे आप अपनी शेखियां बघार डालो या फिर अपनी तकलीफों का रोना रो डालो, वो नहीं कहती कुछ, ना ही उकसाती , ना डांटती , ना चिल्लाती और ना संदेह ही करती, और बस यहीं से जादू शुरू होता है।उनके इस कुछ ना करने में ही सब कुछ कर जाना समाहित है।
फिर भी ऐसा क्या है उनमें , जो अपार ऊर्जा का गहन खजाना कभी ख़तम नहीं होता, ऐसा क्या है कि इतनी खुली छूटों के बाद भी मन आवारागर्दी की जगह स्वयमेव ही अनुशासन में बंधे रहना चाहता है, ऐसा क्या है कि जबकि वह खुद से कुछ नहीं कहती उसे देखने मात्र से ही असीम शक्ति का सागर हृदय में उमड़ पड़ता है…
क्या है ऐसा…?
एक गजब का आत्मविश्वास, स्वाभिमान व कर्मठता है उनके भीतर। और एक विश्वास है मेरे लिए।
वह मुझे बेटा- बेटा कहकर दिन-रात पुचकारने वालों में से नहीं है,और ना मेरे नखरे उठा कर, दोषों को ढककर लाड़ जताने वाली ही है।
उसके पास ज्ञान उड़ेलने के लिए डिग्रियां भी नहीं है और ना ही है वह अतिसंदेहयुक्त दृष्टि जो अक्सर बच्चो को गलत क़दम उठाने पर विवश कर देती है।
उस पर कोई बंदिश नहीं है पर फिर भी वो बंधी है ।आत्मानुशासन में ,हमेशा। समय की सुइयों सी लयबद्ध ।
मैने कभी उन्हें यूं ही आराम करते ना देखा और ना ही किसी को अपने प्रेम में बांधकर मजबूर करते हुए ही।
सादगी , संयम ,सद्व्यवहार, सदाचार, अनुशासन, वैज्ञानिकता, समझदारी जैसे सभी उच्च दर्जे के गुणों का उनमें एक आकर्षक संतुलन है ।
पढ़ने के प्रति उनकी लगन, निरंतर सीखते रहने की आदत ,हर बात को तर्क पर कसकर ही विश्वास करना कुछ ऐसी चीजें हैं जो शायद प्रारंभ में उन्होंने ना अपनाई थी परंतु समय के साथ उन्होंने इनको खुद में समावेशित कर बौद्धिकता का परिचय ही दियाहै।
वो इतिहास जानती हैं, मनोविज्ञान भी , राजनीति का ज्ञान भी उन्हें उसी स्तर का है जितना कि किसी सिविल सर्विस की तैयारी करते नौजवान को होता है।
वह बहस करती है और कभी-कभी मैं सच में आश्चर्यचकित रह जाती हूं जब वह चीजों का मूल्यांकन उसी संतुलित रवैए से करती हैं जितनी कि किसी कुशल प्रशास क से उम्मीद की जाती है।
वह कुशल ग्रहणी है, कंप्यूटर चलाना, मेहंदी लगाना नई-नई खाद्य सामग्री बनाना शायद मामूली चीजें होंगी भी पर वह मामूली पर रुकती नहीं है ,उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यास पढ़ें है, ‘भारत एक खोज’ जैसे ऐतिहासिक महत्व के एपिसोड उन्हें जबानी याद है।
कौन कब मुख्यमंत्री था?
किस सन् में क्या हुआ?यह सारा ज्ञान रखती है वो और ना सिर्फ ज्ञान बल्कि इस ज्ञान का उचित विश्लेषण करने में भी वह निपुण हैं।
वह घर का काम करती हैं ,सिलाई करती हैं, अखबार पढ़ती है, बहसो में भाग लेती है, किताब पढती है और कभी- कभी कुछ लिखने का भी प्रयत्न करती हैं।
वह हिटलर को भी जानती है और गांधी को भी , वो सिकंदर को भी जानती है और चन्द्रगुप्त को भी।
मेरी मां बमुश्किल छह या सात कक्षा ही पढ़ी है, लेकिन मुझे मालूम चला कि वो पढ़ाई में बहुत होशियार थीं और पढ़ना भी चाहती थी।
मात्र चौदह या पंद्रह बरस की आयु में उनका पिताजी से विवाह हो गया और उनकी पढ़ने की आकांक्षा पर ना फ़ैला सकी।
उनका तब कोई स्वप्न ना था, सिवाय पढ़ने के ,यदि मेरी मां को आगे भी तालीम दी गई होती तो निश्चित तौर पर आज वो किसी जिले की प्रशासिका ही होती।
उन्हें इस बात का अहसास है,पर वो दूसरों को दोष नहीं देती।
उनका मानना है कि हम अपनी ज़िन्दगी खुद ही चुनते हैं। उस वक़्त भी उनके पास विकल्प था,पर उन्होंने खुद ही ये जिंदगी चुनी है । वो भाग्यवादी नहीं है, और ना ही किस्मत का रोना रोने वालों में से है।
आज भी वो इतनी अल्प संभावनाओं में स्वयं के लिए एक रास्ता खोज ही निकालती है, पढ़ने का, सीखने का, समझने का।
आज भी वो किचन में खिड़की के पास खड़े होकर अपने अतीत के पिंजरों में से खुद को उड़ाने की कोशिश करती है और मुझे देखकर उसकी आंखो में एक जादुई चमक दिखाई पड़ती है।
मानो अतीत का पिंजरा अब खुल चुका हो, और पंछी आजाद हो चुका हो।
बस वही चमक,वहीं चमक मेरे सपनो को जिंदा रखती है…
©प्रिया मैथिल