मेरी महबूबा मरहम मरहम सी बहती है
इस सर्द मौसम में भी गरम गरम सी बहती है
जालिमा तुम्हारी हर नज़्म तरम तरम सी बहती है
तुमनें तो ग़ज़लों नज़्मों को ग़ुलाम बना रक्खा है
तुम्हारी तारीफ़ में दिले बज़्म आफ़रीं आफ़रीं बहती है
इक तुम्हारें आ जाने से हम कुछ इस तरहा जी उट्ठे
ग़र देख लें तुम्हें जी भरके हवा भी सनम सनम सी बहती है
कोई दर्द ज़ख्म हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता
इस जिस्मों जाँ में वो महबूबा मरहम मरहम सी बहती है
उसके क़रीब जाने को कभी कभी ये आँखें भर आती हैं
अफ़साने सुनाती हैं बेपनाह इश्क़ के नम नम सी बहती हैं
ये साथ हमारा उम्रभर ज़िंदा रखना ऐ ख़ुदा मेरे मौला मेरे
वो दिलरुबा हाय मरहबा रगों में जनम जनम सी बहती है
~अजय “अग्यार