मेरी बेटी
‘ मेरी बेटी ‘
पल में रुठ जाये ,पल में मान जाती है,
कभी संग तो कभी आगे निकल जाती है
कभी जीत जाये, कभी संग उसके जीत जाता हूँ
थोड़ी नादान, थोड़ी नासमझ,थोड़ी अल्हड़ वो, मेरी बेटी है !!
सूरज सा तेज , चाँद की शीतलता उसमे
शबनम सी कोमलता, चट्टान से इरादे उसके
ना करम पे, ना रहम पे, खुद पे यक़ीन है उसे
फूल – सी कोमल,ओस की नाजुक लगती वो, मेरी बेटी है !!
जिसके नन्ही क़दमो पे होते थे कभी कुर्बान
आज ज़माने में हो गई है उससे अपनी पहचान
चेहरे पर हर पल लिए, एक ताज़ी सुहानी मुस्कान
सोते भाग्य को आहट मात्र से जगाने वाली वो, मेरी बेटी है !!
सुना है सबसे, बेटी अपनी नहीं पराई होती है
मैं तो बस इतना जानू, माँ- बाप की जान होती है
कदम मात्र से ही जिसके दूसरे घर भी पावन हो जाये
दो कुलों की मर्यादा बखूबी निबाहने वाली वो, मेरी बेटी है !!
बढ़ रहे जिसके कदम आज डगर डगर है
उसके हर परचम पर जहां में सबकी नजर है
फिर क्यों ना कहे ‘अजय’, बेटो से आज आगे बेटी है
अपने मान-सम्मान के परचम लहराने वाली वो, मेरी बेटी है !!
—— अजय
( स्वरचित )