मेरी पहचान!
कौन हूँ मैं, मेरा परिचय क्या है?
क्या मैं वो जो घुटने पे चल रही,
या फिर दौड़ कर कुर्सी पकड़ रही?
क्या मैं वो जो बस्ता लिए स्कूल जा रही,
या फिर वो जो पेट भरने को रोटी माँग रही,
या कहीं वो तो नहीं जो विक्षिप्त मन से
रास्ते पे बेपरवाह इधर-उधर भाग रही?
क्या मेरी पहचान मेरे घर के नेमप्लेट पे है,
या मेरे दफ़्तर के नेम बोर्ड पे छपा हुआ है,
कहीं मेरे हस्ताक्षर में तो नहीं मेरी पहचान?
सागर किनारे रेत पे जो गुदा था मैंने
क्या था वो मेरा अस्तित्व, मेरी पहचान?
पर वो तो मिट गया था मात्र एक लहर से
क्या मेरी पहचान इतनी कमजोर है,
और मेरा अस्तित्व इतना हल्का
कि एक पल में मिट मिट्टी से मिल गया?
क्या मेरी पहचान नहीं है छुपी
उस अशीष देते बढ़ते बुज़ुर्ग हाथों में
जिनके घाव पे मरहम लगाया था कभी मैंने
और उस बच्ची के कलम से निकले शब्दों में
जिसे ख़ाली समय में कभी पढ़ाया था मैंने
और पड़ोसी काकी के एक धन्यवाद में
जिन्हें सर दर्द होने पे चाय पिलाया था मैंने।
क्या मेरी पहचान नहीं छुपी उन आँखों में
जो मुझ से अटूट प्रेम करते है और जो
विश्वास करते है मुझपे मुझसे भी अधिक
और जो नहीं छोड़ सके मुझे
तब भी जब चोट पहुँचाया उन्हें मैंने।