मेरी पहचान
मेरी पहचान ,
आखिर कौन हूँ मैं? क्या हूँ मैं ?
स्त्री या सृजन,
करती हूँ सृजन हर पल जीवन का मैं
सृष्टि का,
भावनाओं, उमंगों और रिश्तों का,
पल में रचती इक नया ही स्वांग हूँ मैं,
अपने अस्तित्व का, अपनी इच्छाओं का,
कहाँ रखती, ध्यान हूँ मैं,
सब की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी पाती हूँ मैं,
न खुश हो कर भी मुस्काती हूँ मैं,
पानी में चीनी सी घुल जाती हूँ मैं,
कभी माँ, कभी बहन, कभी प्रेयसी
बन जाती हूँ मैं,
बिना कहे ही सब समझ जाती हूँ मैं
फिर भी सवालों के घेरे में आती हूँ मैं,
मैं ही देती अग्नि परीक्षा,
फिर घर से भी निकली जाती हूँ मैं ,
चीर हरण होता मेरा ही,
और पतन की वजह भी बताई जाती हूँ मैं,
इतिहास से लेकर अब तक,
परम्पराओं और मिथ्या में उलझाई जाती हूँ मैं
अपने ढंग से ही तोड़ी-मरोड़ी,
और फिर बनाई जाती हूँ मैं,
हाँ में हाँ मिला दूँ तो ठीक,
वर्ना तरह तरह के खिताबों से,
नवाज़ी जाती हूँ मैं,
गिराई जाती, बाँधी जाती और फ़साई जाती हूँ मैं,
पर मैं तो हूँ मैं,
कहीं कहीं से खुद को समेट कर,
फिर से पूरी बन जाती हूँ मैं,
शून्यता का पर्याय हूँ मैं,
फिर भी कहाँ इस जग से समेटी जाती हूँ मैं,
मेरी पहचान हूँ खुद मैं,
मैं ही शून्य मैं ही सर्वस्य,
मैं ही आधी मैं ही पूरी ……