“मेरी परछायीं मुझसे सवाल करती है”
मेरी परछायीं मुझसे सवाल करती है,
कितना चलती हो अथक ,पूछती है,
किसके लिये चलती हो, कहती है,
क्यों चलती हो, मुझे भी तो बताओ,
कहती है ,क्यों मुझे भी थकाती हो,
साथ अपने कितने जहाँ लेकर चलती हो,
एक दर्द का कारवाँ लेकर चलती हो,
अन्दर अपने एक सैलाब लेकर चलती हो,
सपनों का ध्वंसावशेष लेकर चलती हो,
रेत के वो टूटे घरौदें आँखो में बसते हैं,
वो सूखी नदी पर कितनी सीपीयां पड़ी,
जाने कितने पैरों तले रौंदी गयीं,
आज मैं अपनी ही परछायीं के आगे,
निरूत्तर सवालों के कटघरे में खड़ी हूँ।
©निधि…