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21 Nov 2021 · 6 min read

मेरी नई गज़लें

आदमी को ओहदे से पहचानता है
यही तो दोस्तों उसकी महानता है।
चुकता नहीं कभी भी चापलूसी से
मौके का फायदा उठाना जानता है।
हरफनमौला है शख्सियत उसकी
वक्त मुताबिक गर ढलना जानता है।
क्या देगा कोई दगा उस शख्स को
खुद को संभालना जो जानता है ।
अंधेरे कुछ नहीं बिगाड़ सकते तेरा
अंदर से तू अजय जलना जानता है
-अजय प्रसाद

सदियां गुज़र गयी मगर हालात ज्यों के त्यों
अमीर और गरीब की मुलाकात ज्यों के त्यों।
वही ज़ुल्मोसितम औ वही खोखले वायदे हैं
जनता के लिए नेता के ज़ज्बात ज्यों के त्यों ।
वही फ़ासले,वही दूरियां,औ वही मजबूरियाँ
हुकूमत औ अवाम की औकात ज्यों के त्यों ।
गुजर गयी कई पीढियाँ जवाब ढूंढते-ढूंढते
आज भी हैं होठों पर सवालात ज्यों के त्यों ।
अब तो अजय आ गया होगा तुझको यकीं
लिखनेवालों के हैं मुश्किलात ज्यों के त्यों।
-अजय प्रसाद

सियासत में बली के बकरे कौन,जनता
यां उठाए नेताओं के नखरे कौन,जनता।
संसद,संविधान,हुकूमत वो सब ठिक है
मोल लोकतंत्र से ले खतरे कौन,जनता ।
सारे ऐशो-आराम तो हैं लीडरों के लिए
भूखे-नंगे सडकों पर उतरे कौन,जनता ।
गरीबी,बेरोजगारी,किसानों की लाचारी
तमाम त्रासदियों से बिफरे कौन, जनता ।
हालात और हक़ीक़त बदलता है कहाँ
खुद ही परेशानियों से उभरे कौन,जनता।
-अजय प्रसाद

रास्तों से पूछ मंज़िल का पता
बेबफ़ा से पूछ संगदिल का पता।
लाशों से भला क्या पूछता है तू
खंजरो से पूछ कातिल का पता ।
मायुस हो कर तो यूँ मत डूब यार
लहरों से पूछ साहिल का पता ।
तन्हाइयां तुम्हें कर देंगी बरबाद
शमा से पूछ महफिल का पता ।
जाननी है अजय कीमत अपनी
हाशिये से पूछ हासिल का पता
-अजय प्रसाद

तारीफ से कर दिया पहले तरबतर
तब जाके हुए हैं ‘वो’ मेहरबाँ हमपर।
अब ये ज़माना चाहे या न चाहे यारों
हमनें ज़माने को है बनाया हमसफर ।
लाख दर्द मिले,सब्र से लिया है काम
अश्क़ों ने भी किया रहम आंखों पर ।
यूँ तो कई बार लगा मंजिल करीब है
बस इसी भरम में फिरते रहे दरबदर ।
संभल तो गई ज़िंदगी तुम्हारी अजय
हाँ भले ही संभली हो ठोकरें खा कर।
-अजय प्रसाद

भूल गये हैं वो एहसान कर के
तोहमत के तमगे दान कर के ।
मैने खता-ए-ईश्क़ की है दोस्तों
जाऊंगा ज़िंदगी कुर्बान कर के ।
कोई दवा नहीं है इस मर्ज़ का
देखा है धरती आसमान कर के ।
लोग तो लुत्फ़ लेतें है सताने में
फेर लेतें हैं मुहँ सब जान कर के।
तुम अजय बेशक़ नामाकूल हो
क्यों रहे खुद को नादान कर के।
-अजय प्रसाद

बेसिर-पैर की बात मत करना
दिन को कभी रात मत कहना।
रुसबा न हो जाए प्यार तुझ से
घर के मुश्किलात मत कहना ।
दिल तो पागल है समझेगा नहीं
उसे अपनी ज़ज्बात मत कहना ।
सबको मिलता है कहाँ सबकुछ
सबके भले की बात मत करना।
देख अजय अगर तू है समझदार।
गज़लों को आज़ाद मत कहना।
-अजय प्रसाद

उसे तो एहसास-ए-हुनर ही नहीं
कितना चाहता हूँ खबर ही नहीं ।
कोशिशें भी मेरी रूठ गई मुझसे
हुआ उस पर कोई असर ही नहीं ।
भटक रहा हूँ रास्तों पे बे-मंजील
और रास्तों को ये खबर ही नहीं ।
महफ़िलें मुझ पे मेहरबाँ हैं यारों
तनहाईयाँ तो मय्ससर ही नहीं ।
देख लो अजय औकात अपनी
मत कहना की मोतबर ही नहीं ।
-अजय प्रसाद
मोतबर = भरोसेमंद

क्या कहेंगे भला हम उस भाईचारे को
रोक न पायी जो मुल्क के बँटवारे को ।
गुनाहगार थे कौन औ सज़ा मीली किसे
तरस गए अपने ही अपनों के सहारे को ।
किसी को सत्ता तो किसी को मिला भत्ता
बेबसोमजलूम तो भटकते रहे गुजारे को।
जो थे खुशनसिब वो रह गए महफ़ूज़ मगर
भूले नहीं उस दौर के खौफ़नाक नज़ारे को।
-अजय प्रसाद

उन्हें अनर्गल उटपटांग कुछ बकना है
आखिर सुर्खियों में बने जो रहना है ।
हुजूर चले आइये न फ़ेसबुक पटल पर
चाहतें बेसिर-पैर के गर पोस्ट पढ़ना है।
और अगर करना है अपना पुरा ब्रेनवॉश
फ़िर तो सिर्फ़ वॉट्सएप्प मेसेज चरना है।
हर एक मुद्दे पर हैं अच्छी और बुरी पोस्टें
मगर चुनाव तो भई आपको ही करना है ।
और गर चाहतें हैं अच्छे से हो टाईम पास
तो बस अजय की बेबहर गज़लें पढ़ना है
-अजय प्रसाद

मुझ से हमदर्दी की हिमाकत न कर
मुझसे ही मेरी यार शिकायत न कर ।
मत जाया कर अपनी ये रहमदिली
रंज कर मगर कोई रिफाक़त न कर ।
लूटा चुका हूँ मैं हर एक पल गमों के
अब तू अश्क़ों की हिफाज़त न कर ।
खाक़सार हूँ खाक़ में मिल जाऊँगा
ज़िंदगी,मौत से कोई बगावत न कर ।
हौंसला अफजाई की ज़रूरत नहीं है
खामखाँ मुझ से तू अदावत न कर ।
मिल जाए शायद क़रार तुझको भी
अजय साँसों पे कोई रियायत न कर।
-अजय प्रसाद

खौफ़ -ए- फसल है इंश्योरेंस
बेहतरीन शगल है इंश्योरेंस ।
लाईफ़ का हो या हो हेल्थ का
कीचड़ में कमल है इंश्योरेंस ।
है वीमा विज्ञापनों का बाज़ार
ज्यूँ गुट्खा विमल है इंश्योरेंस
शौक-ए-अमीरी,बोझा-ए -गरीबी
फक़त रद्दो बदल है इंश्योरेंस ।
कहीं LIC,कहीं STAR ,तो कहीं
ये SBI जनरल है इंश्योरेंस
अच्छा है अजय तू ने भी लिया
आखिरी ये अमल है इंश्योरेंस ।
-अजय प्रसाद

हुस्न उनका है मल्टीप्लेक्स मॉल की तरह
ईश्क़ मेंरा है सरकारी अस्पताल की तरह ।
भला कैसे हो हम पर नज़रे इनायत उनकी
आशिक़ी जो है हमारी खस्ताहाल की तरह।
दिल,गुर्दे,फेफड़े फड़फड़ातें हैं देख कर उन्हें
ज़ज्बात हो जातें हैं बेकाबू बवाल की तरह।
आँखें तो हो जातीं हैं मालामाल दिदार करके
और बाहें रह जाती हैं खाली,कंगाल की तरह।
औकात भी देख लिया करो अजय तुम अपनी
क्यों आ जाते हो ज़िंदगी में जंजाल की तरह।
-अजय प्रसाद

आईए एक दूसरे पे हम इल्जाम लगाएं
फ़िक्र है कितनी ज़रा अवाम को बताएं।
यही तो है सियासतदानों का सिलसिला
भला हम औ आप क्यों वंचित रह जाएं ।
ज्म्हुरियत पे करें जम कर भरोसा मगर
काम सारे उसके ही खिलाफ़ कर वाएं।
वक़्त के साथ चलना ज़रूरी तो नहीं है
क्यों न वक़्त से आगे हम निकल जाएं ।
हुकूमत तुम्हारी हो या फ़िर हो हमारी
बस फाएदे में जनता कभी न आने पाएं
-अजय प्रसाद

अरे भाई!न्यूज़ पढ़ न,चिल्लाता क्यों है
खामखाँ अवाम को यूँ डराता क्यों है ।
बोगस ब्रेकिंग न्यूज़ के बहाने दिनभर
एक ही बात बार बार दोहराता क्यों है ।
बिना विज्ञापनों के भी समाचार दिखा
हेडलाइंस में होर्डींग्स दिखाता क्यों है।
बेसिर-पैर की बातें ,फ़िज़ूल की बहस
हक़ीक़त कहने से भी कतराता क्यों है।
खोखली सच्चाई और झूठ की कमाई
आखिर तेरे हिस्से में ही ये आता क्यों है।
चैनेल बदल या बंद कर दे टीवी अजय
खालीपीली तू हम पर गुस्साता क्यों है।
-अजय प्रसाद

महफिल और मुशायरों की बात मत कर
मतलबपरस्ती में माहिरों की बात मत कर
जो करतें हैं मंचो पे मुहब्बत की नुमाईश
बुज़दिल ज़हीन शायरों की बात मत कर।
हुस्नोईश्क़ की जो करतें हैं ज़िक्र गज़लों में
आशिक़ मिज़ाज कायरों की बात मत कर।
मूंद कर आँखें डूबे रहते हैं जो आशिक़ी में
सिमटते हूए उनके दायरों की बात मत कर।
हक़ीक़त कहने में जो हिचकिचातें हैं यारों
ऐसे बे-अदब रंगे सियारों की बात मत कर
बड़े ही खुदगर्ज नामाकूल हो अजय तुम भी
बस अपनी कह, हजारों की बात मत कर ।
-अजय प्रसाद

लिखता वही हूँ जो मैनें झेला है
लफ्जों में लाचारी को उकेरा है ।
किसी और को नहीं यारों वल्कि
रोज़ खुद को ही गौर से पढ़ा है ।
हो गया हूँ मैं सादगी का शिकार
वक्त भी हाथ धोके पीछे पड़ा है।
शायद मिलती है खुशी खुदा को
उम्मीदों पर उसने पानी फेरा है ।
दिन से दो-दो हाथ करके अजय
रात औंधे मुँह बिस्तर पर गिरा है ।
–अजय प्रसाद

अपने ही घर में हूँ मैं बेघर सा
हो गया है दिल भी पत्थर सा।
देखता हूँ,सुनता हूँ खामोशी से
पड़ा रहता हूँ कोने में जर्जर सा।
था कभी गुलज़ार यारों मैं भी
आज़ दिखता हूँ मैं खंडहर सा।
गुजर रही ज़िंदगी जुगाड़ से अब
भटक रही भावनाएं दरबदर सा।
जाने क्यों ये सांसे हैं बेताब सी
आँखें रहतीं हैं क्यों मुन्त्ज़र सा
-अजय प्रसाद

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