मेरी जिंदगी
(1)
मेरी जिंदगी
सबकी समझ से परे है,
कोई मुझे समझने की
कोशिश नही करता,
सब को बस
अपनी ही सुनानी है,
कोई मेरी भी तो सुन लो,
मुझे क्या चाहिए,
क्या करना चाहता हूं मैं,
बिना सोचे समझे
सब लोग बस मुझे
डांट देते हैं,
सुना देते हैं,
मुझे तो अब बहुत
दूभर लगने लगा है
जीना मेरा,
कभी कभी मैं
अपने आप से पूछता हूँ,
क्या अब आगे जीना
सम्भव है इस दुनिया में,
जिंदगी कहती है
मैं तो हमेशा साथ हूँ,
तुम जो चाहें करो
मैं सोचता हूँ,
क्या सच मे
तुमको यही छोड़ दूं
ऐ जिंदगी,
क्योकि जितनी
तुम मुझसे परेशान हो
उससे ज्यादा मैं दुनिया से,
सब को अभी मैं
नकारा,निकम्मा,
लगता हूँ
लेकिन मैं कर भी क्या सकता हूँ,
घर के रोज के तानो
और समाज की तरह तरह
की बातों से
रोज अब लड़ना
मुश्किल सी हो गई हैं
घरवालों को लगता है
मैं कुछ करना नही चाहता,
आसपास के लोग कहते हैं
मैं कुछ कर नही सकता,
मेरी बातों का कोई
महत्व नहीं है इनके सामने,
इतने दिन की जिंदगी में
इतना तो जान गया हूं
सबके लिए
पैसे ही बड़ा है,
पैसे से बढ़कर कुछ भी नहीं
किसी की जिंदगी की
कोई मोल नही है
जब खुद के माँ बाप
ही यकीन नही करते
तो दूसरों पर
क्या भरोसा किया जाए,
जब तक जी रहा हूँ
तब तक ताना ही मारेंगे
और मरने के बाद
सबको गलत ही लगूंगा,
आजतक
कभी भी
अपनी मर्ज़ी का
कुछ भी नही किया,
जो कुछ किया है
घरवाले जो बोले
वही किया,
ये करो ये मत करो
हमेशा रोकटोक
क्या जन्म दिया है तो
रोकटोक जरूरी है
मुझे अपनी जिंदगी में
कुछ फैसला लेने का
कोई अधिकार नही है,
कभी कभी सोचता हूँ
क्या मैं बस अकेला हूँ
जो ये सब समस्या झेल रहा हूँ
या मेरे उम्र के
सभी युवा है इसी मोड़ में
मैं क्या करूँ
क्या कहूं
कुछ समझ नही आता
सबकुछ चुपचाप
सुन लेता हूं,
सबकुछ सहन कर लेता हूँ
कुछ जवाब दो तो
सबको बुरा लग जाता है
कोई साथ देने वाला भी नही है
कोई प्यार से
बात करने वाला भी नही है
तरस रहा हूँ
सालो से
एक मीठी बोल
सुनने को
मुझे इस तरह घुट घुट कर
जीना अब रास नही आ रहा
दिल करता है
अभी जान दे दूं
क्या करूँ ऐ जिंदगी
अब तू ही बता
तू तो सबकी बात भी
सुनती है साथ मे मेरे
कोई मार भी दे
तो चुपचाप सहता हूँ
और कितना सहन करूँ,
अब मुझसे ये सब
नही होगा…
– विनय कुमार करुणे