मेरी कहानियाँ कुछ यूँ ही
मेरी कहानियाँ कुछ यूँ ही
बहती निशानियाँ शब्दों में
खुशियाँ भी हैं इनमे
तो तोड़ा ग़म भी है
आती है हँसी कुछ चेहरो पर इनसे
इनसे कुछ आँखें नाम भी हैं
ये कहानियाँ नयी नहीं है कोई
ये बस तुम्हारी मेरी ज़िंदगी सी है
रोजाना के पन्नों से भरी हुई
ये एक मासूम किताब सी हैं
मोहब्बत के किस्से भी हैं यही
नफ़रत की जुंग भी दर्ज़ हैं कही
कुछ दिलों का दर्द भी हैं यें
और दर्द का मर्ज़ भी है इनमें
बस दुआ माँगता हूँ यही खुदा से
लिखता जाऊं बिना रुके ये कहानियाँ
लफ़ज़ो की ये नहरें गुजरती राहों से
निकल कर मिलेगी कभी एक सागर में
मेरी कहानियाँ कुछ यूँ ही
बिखरी सी यादें लफ़्ज़ों में
–प्रतीक