मेरी कविता
कुछ ख़ामोश सी
रहने लगी है
आजकल मेरी कविता
चाहती तो है
बात करना
जाकर बगीचे में
लदे गुंचों की डालियों से,
पर सुन लेती है
जब किसी
कोमल कली की चीखें
जो कुचल दी जाती हैं
मानव के खालो में लिपटे
आदमखोर भेड़ियों के
पैरों के तले
तो हो जाती है निःशब्द
मेरी कविता
चाहती तो है उड़ना
ऊँचे आसमानों में
खोल कर अपने
सप्तरंगी पंखों को,
बादल को छू कर
खिलखिलाना चाहती है
सूरज के साथ,
पर जब भी
गहरे स्याह
बादलों के झुंड
निगल लेते हैं सूरज को
तो हो जाती है निःशब्द
मेरी कविता
बहना चाहती है
नदियों के साथ साथ,
लहरों के घुँघरू बाँधकर
थिरकना चाहती है
उसके कलकल के
मधुर संगीत पर
परन्तु जब भी
तय कर दी जाती हैं
उसकी उन्मुक्तता की सरहदें
उसकी स्वछंदता के कानून
हो जाती है निःशब्द
मेरी कविता
तब
खिन्न मन से चुपके से
लड़खड़ाती हुई आती है
मन की सांकल खोल कर
मेरे भीतर मेरी कविता
जहाँ
घुप्प अँधेरे में
रहती है
झरोखे से आती
एक तीव्र महीन रेखा
आशा के किरण की
जो कहती है
कि जीवन शेष है
धान के पौधों को रोपते
बूढ़े काँपते हाथों में
कि जीवन शेष है
बचपन को पीठ पर बांधे
बोझा ढ़ोती माँ के
माथे पर छलक आयीं
बूँदों में
कि जीवन शेष है
छिद्र युक्त बांस निर्मित
बाँसुरी की तान में
कि जीवन शेष है
आग पर तप कर भी
शीतलता प्रदान करते
मिट्टी के घड़े में
कि जीवन शेष है
नन्हे हाथों में
मजबूती से पकड़ी गई
रंगीन किताब में
कि जीवन शेष है
प्रेम में किये गए
अनुबंधों में
कि जीवन शेष है
कलम की स्याही में
कि जीवन शेष है
कविता में,,,,