मेरी क़लम
मेरी क़लम
एक लकीर खींच दी गई है
दायरा बना दिया गया है
एक फरमान जारी की गई है
बंदिश सी लगा दी गई है
मेरी क़लम को
दायरे में बांधने की कोशिस की गई है
कहा गया है उससे
सुंदरता पे लिखो
प्यार पे लिखो
पेड़ – पहाड़ , झरने – नदियां,
फूल – पत्ते , सूरज – चाँद ,
तितली – भंवरा ,राजा – रानी ,
दिन – रात पे लिखो
पर मेरी क़लम तो
कुछ और बोलना
कुछ और लिखना चाह रही है
नथूने फुले हुए हैं इसके
बदबू सूंघ रही है
मौत देख रही है
दूध सी सफेदी में कालिख देख रही है
बड़ी-बड़ी हबेलियों में
लाशों को रक्स करते इठलाते देख रही है
कौन जाने ये जिन्दा लोग कब लाश बन गए
न जाने इनके सड़ने गलने की प्रक्रिया कब से चल रही है
मेरी कलम … इस सड़न इस गलन को लिखना चाहती है
किसानों के आत्महत्या
उस के बाद
पूरे परिबार की मौत से बत्तर जीबन
और उस से उपजी समस्याओं को लिखना चाहती है
गरीब मजदूरों की काम छूटने पे
खाली हाॅंथ अपने सपने के बेताल रुपी लाश को
अपने बेजान झुके हुए कंधों पे लादे घर लौट आने
और एक -एक निबाले को तरसने के दर्द को
अपनी नोक पे उछालना चाहती है मेरी कलम
सौ करोड़ जनता के जेब पे चले अस्तूरे
और कुछ गिने चुने लोगों पे
कुबेर महराज के आशीर्वाद
बाबाओं का पूजा पाठ छोड़
सत्ताधीश होने और
शासक होने के मद में अराजक और निरंकुश
हो जाने पे लीखने -बोलने कोआतुर है …
मेरी क़लम
छत्तीसगढ़ के उन्नीस हजार
बेटियों का कपूर की तरह गायब हो जाने
और इसकी चर्चा भी नहीं होने पे
लिखना बोलना चाहती है मेरी क़लम
मेरी क़लम
बाबा सानंद के
एक सै ग्यारह दिन के भूख हड़ताल
फिर उनकी मौत , और मौत से उपजे
हजारों सवाल, में सेंध लगाना चाहती है
उन खुले खतों की स्याही से जा मिलना चाहती है
जिसे बाबा ने लिख्खा उम्मीद का दामन थाम के
उन सब मजमूनो पे मचलना चाहती है।
मेरी क़लम
मी टू पे लिखना चाहती है
की कैसे ऊचे ओहदों पे बैठे लोग
किसी महिला सहकर्मी के ब्रा की पट्टी खींच लेते हैं
या किसी पन्द्रह साल की बच्ची के मुँह में
अपनी सड़ी बदबूदार ज़ुबान घुसेड़ देतें है
और उतनी ही बेशर्मी से
शिकायतकर्ता पे मुकदमा ठोक देते है
पर मेरी क़लम तो ?
मूक और बधिर बना दी गई है
पर वो अड़ी, खड़ी है, बाचाल है
मेरे ही रक्त के तपिश में निहाल है
कब किसी के कहने में रही हूॅं मैं
और यही मेरी कलम का हाल है
ये जो मेरी क़लम है ना …
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मुग्द्धा सिद्धार्थ