मेरी कलम से ✍️ अटूट सत्य : आत्मा की व्यथा
मेरी कलम से ✍️ अटूट सत्य : आत्मा की व्यथा
जब साँसों की डोर टूट जाती है तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब अपने सपने छूट जाते हैं तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब देह जमीं पर रखी जाती है तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब अंतिम शैया सजाई जाती है तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब कंधों पर श्मशान ले जाते हैं तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब अग्नि के सुपुर्द हो जाता है तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब अंततः राख-ढ़ेर बन जाता है तो जाने कैसा लगता होगा ?
जब गंगा में प्रवाहित हो जाता है तो जाने कैसा लगता होगा ?
बेचारगी से देखती होगी जीवात्मा अपने प्रिय पार्थिव तन को ।
जाने क्या सोचती समझती होगी कि क्या हुआ मेरे जीवन को ?
क्यूँ शौक-संताप-मातम मंडराया मेरे घर-आँगन-उपवन को ?
क्यूँ मेरे चित्र पर माला-दीपक लगा सब दुःखी करे है मन को ?
बस इतने से जीवन की खातिर मैंने जीवनभर कर्म किया ।
कभी झूठ कभी सच को लेकर गृहस्थ का हर धर्म किया ।
कभी ना सोचा-समझा मैंने कि मेरा तन अजर-अमर नहीं ।
मृत्यु तो कटु सत्य है बंदे अपने आने की देती खबर नहीं ।
पर ज्ञानी मानव जान-बूझकर अज्ञानी सा जीवन जीता है ।
जहर को अमृततुल्य समझकर बड़े यतन-जतन से पीता है ।
मेरी कलम से ✍️ सौ. सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव