मेरी इस बस्ती के सभी घर
है थका मजबूर जिनका पथ सुगम दूर हो
कुछ पल तो साथ उनके भी बिताया करो
***
माना तुम हिमालय से भी ऊंचे शिखर हो
समन्दर की गहराइयों को भी झांका करो
***
व्यवहार जिनका वैरियों से भी बदतर रहा
तुम कभी उनसे भी हाथ तो मिलाया करो
***
पत्थरों का ये महल अब मोह को त्याग दो
मेरी सड़क का भी नजारा देख जाया करो
***
मेरी बगावत एक अलग अनूठा अंदाज है
आकर यहां स्वर्ग जैसा आनन्द पाया करो
***
हमसफ़र बनना यदि दिल से तुम्हें मंजूर है
अपनी लकूटी से अपना घर जलाया करो
***
मेरी इस बस्ती के सभी घर फकीरों के हैं
सोने चांदी की चमक न तो दिखाया करो
***
हृदय से आगत का स्वागत जहां पर हुआ
वहां पे फितरतों की सौगात न लाया करो
***
जज़्बातों को बेचना अब हुआ आसान है
पर पसीना बहाकर कुछ तो कमाया करो
***
है लहू मानव का आज सबसे सस्ता हुआ
पर इसे तो यूं ही न सड़क पर बहाया करो
***
रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’