मेरा सादा सा दिल है और सादी सी ही फ़ित्रत है
जला है जी मेरा और उसपे मुझसे ही शिक़ायत है
न कहना अब के ग़ाफ़िल यूँ ही तो होती मुहब्बत है
मुझे तो होश आ जाए कोई पानी छिड़क दे बस
तेरा होगा भला क्या तेरी तो रिन्दों की सुह्बत है
हुई है राह इक तो अब मुहब्बत हो ही जाएगी
अगर इंसानियत की जी को थोड़ी सी भी आदत है
नहीं मिलता कभी साहिल सफ़ीना-ए-मुहब्बत को
ख़ुदारा हुस्न के सागर में क्यूँ होती ये क़िल्लत है
कभी रंगीन दुनिया के मुझे सपने नहीं आते
मेरा सादा सा दिल है और सादी सी ही फ़ित्रत है
तू पैताने रक़ीबों के हूमेशा है नज़र आता
तेरी इस हुस्न की महफ़िल में क्या इतनी ही क़ीमत है
-‘ग़ाफ़िल’