मेरा शहर
मेरे शहर को यह क्या हो गया है,
पहले भी यह भागता था, जागता था,
चमचमाता था, पर लुभाता था।
पहले लोकल ट्रेनों में होती थी बातें,
पड़ोस के चर्चे, घर के खर्चे,
बास की मचमच, सास की कचकच,
और कट जाती थी सब्जियां,
बुन जाते थे स्वेटर और साथ में कुछ सपने।
अब जगह मिलते ही निकल आते हैं मोबाइल,
खिंच जाती है इक लकीर,
सबकी अपनी – अपनी दुनिया,
अपनी – अपनी तकदीर।
अनजान चेहरों पर अब नहीं आती एक मुस्कान,
बातें कर समय का कौन करे नुकसान।
कुछ पाने की दौड़ यहां,
जिंदा रहने की होड़ यहां।
किसी को किसी की नहीं सुध यहां,
हर इंसान हो गया है बुत यहां।
मेरा शहर महा – महानगर बन गया है।