मेरा भूत
मेरा भूत
मेरे वर्तमान पर हावी है,
वो किस्से, वो यादें
जो दिमाग़ की गुल्लक में
रेजगारी की तरह भरी थी
तोड़ कर गुल्लक
उन्हें निकलने की
जैसे बेक़रारी है.
मैं,
वो मैं जो विगत से भागता रहा
उम्र भर, वर्तमान को जीता
भविष्य को गढ़ता रहा
हर पल,
क्योँ मेरा गुजरा कल
जो मीठा भी था, कडवा भी
मस्तिष्क पर कर कब्जा
मुझे भी बदलना चाहता है
एक ख़ामोश किस्से
एक अफ़साने में.
मुझे न डर रहा कभी
मौत की भयानक वादियों में
अंतिम प्रयाण का,
न आज है कोई भय,
न कल होगा.
प्रारब्ध से संघर्ष कर
नियति के अंतिम सत्य
का साक्षात्कार करने को
आतुर भी हूँ, उत्सुक भी.
जीवन की राह में
शायद अपनों की, गैरों की
अपेक्षायें पूरी की, नहीं भी
क्षमा याचना है सबसे
जो हैं, उनसे भी,
जो रहे नहीं.
उम्मीद और जिंदगी
मुट्ठी में रेत सी हो गयी है
फिसल रही है हर घड़ी
क्या ख़बर
किस घड़ी शाम
रात में बदल जाए
ऐसी रात जिसका कोई
सवेरा न हो.
हिमांशु Kulshreshtha