मेरा प्यार
मेरा प्यार
सीमा नही रखता
अनन्त है उसका विस्तार ।
घने जंगल, नदियाँ ,पर्वत,
मलय पवन, विस्तृत गगन
निखिल सृष्टि में है अकिंचन ।
उसका अनोखा चुम्बन,
सांझ सवेरे छोड जाता है,
हर ओर लाज की लाली ।
उसकी एक ही दृष्टि
कर देती है कंचनमय
और तृप्त सम्पूर्ण सृष्टि ।
गहन अंधकार में
चाँदनी के संग
खेला करता है ऑंख मिचौली ।
उसकी बलिष्ठ भुजाएं
कर लेती है,
हर दिशा का दृढ़ आलिंगन ।
छलका कर नेह-नीरद
करता है सबको तुष्ट
जड हो या चेतन।
उसकी खामोशी है –
उसका प्रेमालाप
जो उत्कंठित करता मन।
मिलन के चंद क्षण
सुनते हैं भाव -विभोर हो
उसकी उर धडकन ।
अपनी उमंग लहरों से
कर सागर मे किलोल
पावन कर देता तट के छोर।
अनदेखी, अनछुई कलम से
कर देता है कुछ अंकित
उर पृष्ठ पर मेरा प्यार ।
मेरा प्यार
सीमा नही रखता
अनन्त है उसका विस्तार ।
—प्रतिभा आर्य
अलवर(राजस्थान)