मेरा गाँव
ताल्लुक नहीं रहा जिन राहों से अब;
उन राहों से आज भी हम वाकिफ है;
हर मोड़ पर सोचते ही रहे;
क्यों है हम यहाँ;
कुछ तो है जो अधूरा है इस मोड़ पर;
कुछ यादें कुछ जीवन की सौगातें;
भूल गए थे हम शायद यहाँ;
यही सोचकर चल पड़े;
फिर उसी राह पर;
जहाँ थी वहीं यादें वही सपने;
सोचकर तो चले थे कि कुछ ना बदला है यहाँ ;
वही पुराने पेड़ वही उनकी छाया;
हमारा बचपन जहाँ था खिलखिलाया;
ढूँढते रहे उस वक्त के निशान पर कुछ न पाया;
देखा तो वह पुराना घर ना था;
बदला बदला सा था वह कुछ नए रूप में;
छोटी सी गली में घूम कर मिलने वाला घर ;
अब एक मकान नंबर बन चुका था;
असभ्यता के गांव कूचे गलियों से उठकर;
वह अब सभ्य शहर बन चुका था;
जहाँ जीवन तो था पर प्राण नहीं;
लक्ष्य तो था पर पहचान नहीं;
रिश्ते तो थे पर स्नेह नहीं ;
हाँ, यह मेरा वही पुराना गांव था;
जो अब शहर बन चुका था;
जो अब शहर बन चुका था।।
✍माधुरी शर्मा ‘मधुर’
अम्बाला हरियाणा।