मेरा ग़म
जीवन के दर्द भरे मंजर मे,
एक अनजानी सी तनहाई है
महफिल सजी है अशकों की,
ग़म की गूँजे शहनाई है।
यादें जिंदा हैं उन लम्हों की,
जब बेगाने भी अपने लगते थे
किसी अजनबी की यादों से,
सपनों के दीपक जलते थे
ख्वाबों की उस दुनिया मे,
ग़मगीन उदासी छाई है।
महफिल सजी है अशकों की
गम की गूँजे शहनाई है।
चाँद सितारे क्या करेंगे रोशन,
जब तकदीर ही अँधेरों ने लिखी हो
अब किसे कहेंगे हम अपना,
जब अपनों से ही जफा मिली हो।
लाख करे कोई कोशिश,
अब ये दिल आबाद न होगा
जिन राहों पे चलूँगा मै,
कोई उन पर मेरे साथ न होगा।
दर्पण की नफरत से घायल,
एक मुखड़े की परछाई है।
महफिल सजी है अशकों की,
गम की गूँजे शहनाई है।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”