मेरा अन्तर्मन
जाने कैसा है अन्तर्मन ये
कुछ भी समझ न पाती मै
कभी ये एकदम कोरा लगता
दिखती कभी अबूझ आकृतियां
जैसे हूँ कोई निपट निरक्षर
कुछ भी पढ़ न पाती मैं |
रिक्त न दिखता कोई कोना
जिसमें जीवन गीत सजाऊं ।
जो भी पाया सीखा अब तक
उन सीखों से ताल मिलाऊं |
यत्र तत्र क्या-क्या लिख रखा
व्यर्थ भार सब ढ़ोता है।
सब व्यवहारों की स्मृति मे
इक पल हंसता फिर रोता है।
किन्तु चलेगा कब तक क्रम ये
इसे कहीं थमना होगा ।
आगे यदि बढ़ना है तो
ये व्यर्थ बोझ तजना होगा।
बुद्धि को अपमार्जक कर
मन का खारापन धुलना होगा।
भय कूल तोड़कर मन के सब
सानिध्य ईश चुनना होगा |