‘मेघ बरसें बने तन ये चन्दन’ : नवगीत
राह तकती धरा आस में मन
मेघ बरसें बने तन ये चन्दन
आ चुका है असाढ़ी महीना
चिपचिपी देह बहता पसीना
हर कोई है उमस में ही व्याकुल
चैन मिलता किसी को कहीं ना
खेत सूखे पड़े शुष्क उपवन
मेघ बरसें बने तन ये चन्दन
आग तन-मन में ऐसे लगी है
जैसे जलती हुई जिन्दगी है
धूप ने क्या गज़ब खेल खेला
हाय कैसी हुई दिल्लगी है
जल बिना जल रहा है ये तन मन
मेघ बरसें बने तन ये चन्दन
कल लचकती थी रूखी हुई है
धान की पौध सूखी हुई है
लाख लालच निगाहें लगाए
हर तरफ भूख भूखी हुई है
अब तो बरसो धरा पर ओ साजन
मेघ बरसें बने तन ये चन्दन
रचनाकार :
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’