**मेघों को बरसने दो धरती बहुत प्यासी है**
**मेघों को बरसने दो धरती बहुत प्यासी है**
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मेघों को बरसने दो धरती माता बहुत प्यासी है,
मानव के कृत्यों से प्रकृति में छायी उदासी है।
विकास की सीधी सीढ़ी चढ़ते चढ़ते पथ पर,
हर तरफ से बंद कर दी पानी की निकासी है।
विज्ञान के नाम पर खोजबीन यूँ करते करते,
समझ बैठे बैठे बैठे खुदा की शक्ति प्रवासी है।
सदा से यूँही इंसान करता आया हैं नादानियां,
बेबसी उजाड़ में याद आती मक्का काशी है।
बाढ़,सूखा,आपदाएं मनमानियों का जवाब है।
हुजूमियत तो सदा प्रकृति प्रकोप की दासी है।
मनसीरत कुदरत के रंग बहुत रंग बिरंगे न्यारे,
फिर क्यों मानव मूर्ख मन बना अभिलाषी है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेडी राओ वाली (कैंथल)