में बहती धारा
में बहती धारा
—————-
मैं बहती धारा हूं, सागर में समा
जाती हूं ,
नदियों की तरह बहकर ,खुद रास्ता
बनाती हूं ।
ढूंढती हूं मांझी नौका पार लगाने को,
किनारा कोई नजर नहीं आता मुझको।
बीच मझधार है पतवार मेरी,
पथ कोई मिलता नहीं—
ढूंढती है साहिल को आंखें मेरी।
डगमग-डगमग नौका होती,
हृदय है बेहाल ।
पार लगा दो प्रभु नैया मेरी,
में हो जाऊं निहाल ।।
ऊंचे -ऊंचे पर्वतों से हिम पिघल रहे,
शबनम की “बूंदें,, बनकर
वृक्षों में दुबक रहे ।
समुंदर से आकर मिले,
बहती हुई नदियां ।
झरने भी झर-झर करते,
और पल्लवित वादियां!!
सुषमा सिंह*उर्मि,,