में आज भी उस बंद कमरे का शिकार हूं
इस चार दिवरो के बीच उस पन्ने के साथ बैठता हूं,
हर तरफ अंधेरा सा रहता है फिर भी अपने आप से बाते कर लेता हूं,
किसी की खुशी के लिए खुदो बदनाम करता हूं,
आज भी में कहीं उस बंद कमरे का शिकार बने फिरता हूं।
उस दीवार की कुछ अनोखी गाथाओं का हिस्सा नहीं,
फिर भी उन शिकवे के पात्र बने फिरता हूं,
कहीं ना कहीं अपने को पहचाने में गलती की हैं,
इसीलिए आज भी में उस बंद कमरे का शिकार बने फिरता हूं।
हर बार अपनो के दिए दर्द में लिपटता हूं,
इन दीवारों को इस बात का ज़िक्र भी किया करता हूं,
हर बार सपनों को काच की तरह टूटते देखता हूं,
बिखर के भी खुद को इस बंद कमरे का हिस्सा समझ बैठता हूं।
नजाने फिर से उन सपनों में लौटना चाहता हूं,
किसी का होकर भी अनजान बने फिरना चाहता हूं,
दो पल की ज़िंदगी को ज़िंदा देखना चाहती हूं,
हर बार मैं अपने आप को इस बंद कमरे का हिस्सा बनना चाहता हूं।